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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३०० ] [ श्रचाराङ्ग-सूत्रम् को । श्रणागमो = मृत्यु नहीं आवेगी ऐसा । न श्रत्थि नहीं है । इच्छापणीया - इच्छा के वश में पड़े हुए | वंकानिया असंयम में लीन बने हुए । कालगहीया = काल के मुँह में पड़े हुए तदपि । निचयनिविट्ठा = कर्मों का संग्रह करने में तल्लीन बने हुए । पुढो पुढो - विचित्र | जाई - जन्म - परम्परा को । पकप्पयंति बढाते हैं । भावार्थ- ज्ञानी भगवान् संसार में रहे हुए, सरलबोधि और बुद्धिशाली पुरुषों को इस प्रकार धर्मोपदेश देते हैं कि जिससे वे क्लेश, शोक और संताप रूप श्रर्त्तिध्यान से व्याकुल होने पर भी तथा विषयादि प्रमाद में फँसे हुए होने पर भी धर्माचरण कर सकते हैं । यह बात यथार्थ है । अहो जम्बू ! कितना आश्चर्य ! संसार के सभी प्राणी मृत्यु के मुख में पड़े हुए हैं । इन प्राणियों को मृत्यु न आवे ऐसा तो बिल्कुल है ही नहीं तो भी आशा से आकृष्ट होकर, संयमी जीव काल के मुँह में पड़े होने पर भी मानों मरना ही नहीं है इस प्रकार पाप - क्रियाओं में लीन रहते हैं और विचित्र जन्म-परम्परा की वृद्धि करते हैं । अथवा पुनः पुनः आशा के जाल में फँसते हैं । विवेचन - पूर्वसूत्र में यह कहा गया था कि तीर्थकर देवों ने श्रस्रव और निर्जरा का स्वरूप विभिन्न रीति से लोक-समुदाय को प्रवेदित किया है। अब यह बताया गया है कि प्रवचन कौन कर सकता है और किनके सामने, कैसी योग्यता वालों के सामने धर्मोपदेश करना चाहिए। उपदेशक की योग्यता को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जो ज्ञानवान है, जिसने विविध प्रकार का अनुभव प्राप्त किया है, जिसने वस्तु तत्त्व को विभिन्न दृष्टि- बिन्दुओं से पहचाना है वही उपदेश करने के योग्य हैं। विशिष्ट ज्ञान- सम्पन्न पुरुष ही जन-समाज को विकास का सच्चा मार्ग बता सकता है । जिसे लोक-मानस का विशाल अनुभव नहीं है ऐसा पुरुष यदि उपदेश देने लगे तो कदाचित् अनर्थ का कारण भी हो सकता है । उपदेशक को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का ज्ञाता होना चाहिए। पात्रापात्र को समझने की योग्यता उसमें होनी चाहिए इसीलिए सूत्रकार ने ज्ञानी को उपदेश करने योग्य कहा है। अब यह बताते हैं कि उपदेश- श्रवण के योग्य कौन है ? किसे उपदेश प्रदान करना चाहिए ? मुख्यतया मनुष्य ही उपदेश श्रवण के योग्य है क्योंकि मनुष्य ही सर्वसंवर रूप चारित्र के योग्य है । तिर्यञ्चादि भी उपदेश श्रवण करते हैं तथापि वे सम्पूर्ण चारित्र के पालन में असमर्थ हैं। देवतादि भी त्याग प्रत्याख्यान नहीं कर सकते हैं। अथवा सूत्र में आया हुआ "मारणवारणं” पद उपलक्षण समझना चाहिए। इससे समस्त चतुर्गति के अन्तर्गत आये हुए जीवों का ग्रहण हो जाता है । सर्वविरतित्व मनुष्य में ही होता है अतः उसकी प्रधानता के कारण सूत्र में 'माणबा' पद दिया गया है। केवल " मारणवाणं" पद देने से केवलियों का भी ग्रहण हो जाता है लेकिन केव लियों को उपदेश की आवश्यकता नहीं होती अतः उनका निषेध करने के लिए “संसारप्रतिपन्न” यह विशेष लगाया है। इससे चतुर्गति में रहे हुए जीवों का ग्रहण समझना चाहिए। इनमें भी जो प्राणी धर्म ग्रहण करेंगे, जो सरलबोधि हैं, वे ही उपदेश श्रवण के योग्य हैं । छद्मस्थ प्राणी भविष्य की बात नहीं जान सकते हैं अतः उन्हें किसे उपदेश देना चाहिए यह प्रश्न हो सकता है अतएव सूत्रकार यह फरमाते हैं कि अपनी विवेक-बुद्धि से यह जान लेना चाहिए कि यह प्राणी हित या अहित को समझ सकने वाला है या नहीं ? इस प्रकार जो मुमुक्षु हो, सुपात्र हो और बुद्धिशाली हो वही उपदेश श्रवण के योग्य है उसे लक्ष्य में रखकर उपदेश दिया जाना चाहिए । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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