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तृतीय अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
अथवा अठारह पापस्थान आदान रूप हैं। अथवा कर्म की स्थिति के कारण कषाय हैं इसलिए वे भी श्रादान कहे जा सकते हैं। सभी कर्मास्रव श्रादान के अन्तर्गत आ जाते हैं । जो आदान का त्याग करता है वह अपने कर्मों का भेदन करने वाला है । वह अनेक जन्मों के उपार्जित स्व-कर्मों का भेदन करता है अतएव वह सर्वज्ञ हो जाता है।
सूत्रकार ने "कों का भेत्ता" न कहकर अपने कर्मों का भेत्ता होता है यह कहकर यह सूचित किया है कि जीव अपने ही किये हुए कर्मों का स्वयं ही भत्ता हो सकता है । कोई दूसरा उसके कर्मों को क्षीण नहीं कर सकता है। तीर्थङ्कर का उपदेश भी निमित्त मात्र हो सकता है लेकिन कर्मों का क्षय करने पाला नहीं हो सकता । उस उपदेश को श्रवण कर जीव स्वयं अपने परिणामों द्वारा ही कर्म-क्षय कर सकता है। अपने कर्मों का क्षय जीव को स्वयं ही करना पड़ता है अतएव कर्मक्षय के लिए तत्पर रहने का सूत्रकार ने सूचित किया है। .
यहाँ यह तर्क की जा सकती है कि जब तीर्थकर भी अन्य के कर्मों का क्षय नहीं कर सकते तो इसका अर्थ यह हुआ कि वे दूसरे के कर्म का क्षय करने का उपाय नहीं जानते हैं यह उनके ज्ञान की त्रुटि है ? इसका समाधान यह है कि तीर्थङ्करों के ज्ञान में तीन लोक के पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं। जो सत् हैं वे सद् रूप में और जो असत् हैं वह असत् रूप में उनके ज्ञान में व्याप्त हैं । असत् पदार्थों के न जानने से ज्ञान की त्रुटि नहीं कही जा सकती क्योंकि असत् अभाव रूप है । वन्ध्यापुत्र को न जानने से या आकाश-कुसुम को न जानने से ज्ञान में दोष नहीं हो सकता है। तीर्थक्कर का ज्ञान तो प्रतिपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने कर्मों को तोड़ने लिए प्रयत्न करे इसीलिए स्व विशेषण दिया गया है ।
पुनः शंका होती है कि तीर्थक्कर हेय को त्यागने और उपादेय को ग्रहण करने की शिक्षा देते हैं इतने मात्र से ही क्या वे तीर्थंकर हो सकते हैं ? ऐसा उपदेश करने से ही तो तीर्थंकर नहीं कहे जा सकते हैं ?
___ इसका समाधान यह है कि सम्यग्ज्ञान के बिना हित को ग्रहण करने और अहित को छोड़ने का उपदेश नहीं दिया जा सकता। जब तक यथावस्थित पदार्थ का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं होता तब तक शुद्ध उपदेश नहीं दिया जा सकता है। सर्वज्ञता के बिना अविसंवादी उपदेश नहीं हो सकता है । तीर्थकर अविसंवादी उपदेश के प्रदाता हैं अतएव वे सर्वज्ञ हैं। सर्वज्ञता के बिना एक भी पदार्थ का सम्पूर्ण ज्ञान सम्भव नहीं है यही बात अगले सूत्र में सूत्रकार फरमाते हैं:
जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ । संस्कृतच्छाया—य एकं जानाति स सर्व जानाति, यः सर्व जानाति स एकं जानाति ।
शब्दार्थ-जे जो । एगं=एक को। जाणइ-जानता है। से वह । सव्वं सबको। जाणइ जानता है । जे–जो । सव्वं सबको । जाणइ-जानता है । से वह । एग-एक को। जाणइ= जानता है। - भावार्थ जो एक को जानता है वह सर्व को जानता है; जो सबको जानता है वह एक को जानता है।
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