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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६६ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् संज्वलन मान - जिस प्रकार तृण शीघ्र ही नम जाता है इसी प्रकार जो मान शीघ्र दूर हो जाय । संज्वलन माया --- जिस प्रकार बाँस का छिलका सहज ही सीधा किया जा सकता है इस तरह जो माया शीघ्र ही दूर हो जाय । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir संज्वलन लोभ - जिस प्रकार हल्दी का रंग शीघ्र ही छूट जाता है इस प्रकार जो लोभ शीघ्र ही छूट जाय । यह संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र का घात करता है। इससे देवगति योग्य कर्म - बन्धन होता है । स्थिति एक पक्ष की है। यहाँ जो कषायों की गति और स्थिति बतायी हैं वह प्रायः करके समझनी चाहिए। कभी कभी संज्वलन कषाय अधिक काल तक भी बना रहता है जैसे बाहुबलि को रहा । इसी तरह अनन्तानुबन्धी कषाय के होने पर भी कोई कोई मिध्यादृष्टि नव ग्रैवेयक में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार कषायों का स्वरूप समझ कर इनका त्याग करना चाहिए। कषायों के त्याग से ही पारमार्थिक श्रमरत्व होता है । कषायों के तीव्र रहने से कोटिभव का तपश्चरण भी व्यर्थ हो जाता है । जैसा कि कहा है: सामण्णमणुचरन्तस्स कसाया जस्स उक्कडा हुंति । मन्नामि उच्छुपुप्फं व निष्फलं तस्स सामण्णं ॥ जं अजिनं चरितं देसूणाए वि पुव्वकोडी | तं पि कसाइयमेत्तो हारेइ नरो मुहुत्तेण ॥ अर्थात् - श्रमण अवस्था में जिसके कषाय तीव्र हो तो उसका संयम इक्षु के पुष्प के समान निष्फल है | प्राणी कुछ कम क्रोड़ पूर्व वर्ष का चारित्र भी केवल कषाय के कारण एक मुहूर्त में हार जाता है। इसलिए कषायों को कर्म-बन्धन का प्रमुख कारण जानकर त्याग करना चाहिए। क्षमा से क्रोध को, विनय से मान को, सरलता से माया को और संतोष से लोभ को जीतना चाहिए। कषायों को जीतने से आत्म-शुद्धि होती है । आत्म शुद्धि से ही आत्मा का साक्षात्कार होता है और आत्मा का साक्षात्कार होने से सर्व जगत् का साक्षात्कार हो जाता है। यह उपर्युक्त कथन सर्वज्ञ तत्त्वज्ञानी पुरुषों का अनुभूत है । उन सर्वज्ञ प्रभु ने भी कषायों का त्याग किया और नवीन कर्मों का आदान त्यागा तो उन्हें सर्वज्ञत्व प्राप्त हुआ और वे संसार के अन्त करने वाले -संसार - पारगामी कहलाये अतएव प्रत्येक साधक को उनके अनुभव से लाभ उठाना चाहिए । यह सर्वज्ञ प्रभु का अभिप्राय है, यह कह कर सुधर्मास्वामी अपनी मनीषिका का परिहार करते हैं और भगवान् के वचनों की छाप लगाकर विशेष रूप से इसे महत्व प्रदान करते हैं । भगवान् ने भी कषायों का त्याग किया है अतः उनके प्रत्येक अनुयायी को कषायों का त्याग करना चाहिए । सूत्रकार ने "आयाणं सगडब्भि" यह पद दिया है । इसमें आदान शब्द का अर्थ समझने के लिए उसकी व्युत्पत्ति जानने की आवश्यकता है। टीकाकार ने “आदान" शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की हैं "आदीयते -गृह्यते आत्मप्रदेशैः सह लिष्यते अष्टप्रकारं कर्म येन तदादानम्” अर्थात्-जिसके द्वारा आत्म-प्रदेशों के साथ कर्मों का बन्धन होता है वह आदान है। इस अर्थ के अनुसार हिंसादि आस्रव द्वार For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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