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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६८ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में एकता और अनन्तता का सम्मिश्रण दिग्दर्शित किया गया है। जैनदर्शन में वस्तु धर्मात्मक कही गई है। दीप से लगाकर व्योमपर्यन्त सभी पदार्थों में अनन्त-धर्म रहे हुए हैं। श्रनन्त-धर्मात्मक वस्तु को सम्पूर्ण जान लेने का अर्थ है सारे संसार के पदार्थों को जान लेना । जैसे संसार अनन्त है उसी तरह वस्तु के गुण-पर्याय भी अनन्त हैं । तात्पर्य यह है कि जो अनन्त धर्मों को जानता है ही एक वस्तु को जानता है और जो अनन्त पदार्थों को जानता है वही एक वस्तु को भलीभांति जान सकता है । एक पदार्थ के परिपूर्ण ज्ञान के लिए सर्वज्ञता की आवश्यकता है। जो सर्वज्ञ है वही एक पदार्थ को पूरी तरह जान सकता है और जो एक पदार्थ को पूरी तरह जान लेता है वह सर्वज्ञ हो जाता है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पदार्थ का नाम द्रव्य भी है । द्रव्य शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए जैन दर्शन के श्राचार्यों ने कहा है कि द्रवति तस्तान्पर्यायान्यातीति द्रव्यम् अर्थात् जो पर्यायों प्राप्त होता है वह द्रव्य है । अतीत और अनागत की अपेक्षा द्रव्य की अनन्त पर्याय हैं । अनन्त पर्यायों के बदलते हुए भी द्रव्य धौव्यरूप से स्थिर रहता है । जिस प्रकार एक सोने का कड़ा है। उसे तोड़कर सुनारने मुकुट बना लिया तो कड़े का नाश हुआ और मुकुट की उत्पत्ति हुई परन्तु दोनों पर्यायों में स्वर्ण-रूप द्रव्य तो वही कायम रहता है। इसी तरह वस्तुओं की पर्यायें पलटती हैं और द्रव्य कायम रहता है। एक द्रव्य को पूरा जान लेना अर्थात् उसकी भूत और भविष्य की समस्त पर्यायों को जान लेना है क्योंकि द्रव्य का अर्थ उसकी अनन्त-पर्यायों से हैं। द्रव्य को छोड़कर पर्याय नहीं रहतीं और पर्यायों के बिना द्रव्य नहीं रहता । अतः एक द्रव्य को जानना अर्थात् उसकी अनन्त भूत और भविष्य पर्यायों को जानना है । यह जानना सर्वज्ञत्व के बिना नहीं हो सकता अतएव यह कहा गया है कि जो एक को जानता है वह सबको जानता है और जो सबको जानता है वह एक को जानता है । सामान्यरूप से किसी वस्तु के एक गुण को जानने से ही उस वस्तु को जानना कहा जाता है । जैसे आम को देखकर हम कहते हैं कि हमने श्रम जाना । परन्तु यह कथन औपचारिक है। श्रम के रूप को देखकर ही उसको जानना कहना उपचार है । आम में रूप के अतिरिक्त गन्ध, रस, स्पर्श, मूर्त्तत्व, लघुत्व, प्रमेयत्व आदि अनेक धर्म रहे हुए हैं जिनका अनुभव नहीं किया तो उस आम्र को पूरा नहीं जाना है। के रूप को देखकर उसको जानना कहने का उपचार प्रधान और उपसर्जन भाव की अपेक्षा से होता है । रूप का प्रधानत्व और इतरधर्मों का उपसंर्जन (गौणता) होने से उक्त औपचारिक व्यवहार होता है । वस्तुतः इन्द्रियों से अथवा मन से किसी भी वस्तु की सम्पूर्ण पर्याय, उसकी सभी अवस्थाएँ और उसके सभी गुण नहीं जाने जा सकते। क्योंकि इन्द्रियों का विषय वर्तमान काल की पर्याय को जानना है । इन्द्रियों में भूत और भविष्य की पर्याय को जानने की शक्ति नहीं है। यह ज्ञान उनकी शक्तियों से परे है । यह ज्ञान तो केवल आत्मा की शक्ति से ही हो सकता है। आत्मा का साक्षात्कार होना ही अनन्तता का साक्षात्कार है । श्रात्मस्वरूप को समझे बिना सभी पदार्थों का ज्ञान कर सकना असंभव है। आत्मा का स्वरूप अनन्त है और विश्व भी अनन्त है । जिसने अपनी अनन्तता समझ ली है वह विश्व की अनन्तता समझ ही लेता है । इस प्रकार उसके लिए आत्मा ही विश्वरूप और विश्व ही श्रात्मरूप हो जाता है । यही भाव "पिण्ड सो ब्रह्माण्ड" इस वाक्य से प्रतीत होता है । जब श्रात्मा कर्म - लेप से मुक्त होकर सम्पूर्ण शुद्ध हो जाती है तब अनन्तता का साक्षात्कार - केवलज्ञान होता है । यही सर्वज्ञता है। सभी पदार्थों के अनन्त धर्मों को समझने की चाबी आत्मदर्शन है । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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