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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीय अध्ययन तृतीयोदेशक ] [ २४७ होने का है । परन्तु तत्वज्ञ पुरुष ऐसा नहीं मानते ( वे अतीत को अनागत और अनागत को अतीत-वत् नहीं मानते । वे तो ऐसा कहते हैं कि कर्मों की परिणति विचित्र होने से कर्मानुसार दुख-सुख मिलेंगे ही ।) पवित्र चार वाला महर्षि साधक इस बात को जानकर कर्मों के बन्धन को क्षय करे । 1 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विवेचन - पहिले यह प्रतिपादन किया जा चुका है कि आत्मा शाश्वत और सनातन है । यह अद्य, अभेद्य और अविनाशी है परन्तु कर्म-पुद्गलों से सम्बद्ध होने से यह जन्म-मरण करता है। एक गति दूसरी गति में जाता है अर्थात् आत्मा भवान्तर- गामिनी है । यह प्रतिपादन कर चुकने पर शास्त्रकार इस सूत्र में यह फरमाते हैं कि इस संसार में कतिपय मोहावृत्त ( अज्ञानी) प्राणी हैं जो कभी यह नहीं विचारते कि यह जीव पहिले किस अवस्था में था और आगे इसका क्या हाल होगा। वे केवल सामने की Para को मानने वाले प्राणी भूत और भविष्य काल का कभी स्मरण भी नहीं करते हैं। उन्हें कभी अपनी भूत और भावी दशा का विचार ही नहीं होता । यदि भूत और भावीदशा का पर्यालोचन हो तो संसार सक्ति नहीं हो सकती । कहा भी है: केण ममेत्थुप्पत्ती ? कहं इत्र तह पुणोऽवि गंतव्वं । जो एत्तियपि चिंतs इत्थं सो को न निव्विण्णो ॥ अर्थात् - मैं यहाँ कहाँ से आया हूँ, यहाँ से मुझे कहाँ जाना पड़ेगा ? इतना मात्र भी जो विचार करता है वह कौन संसार से विरक्त न होगा ? इस सूत्र में नास्तिक मत ( चार्वाक ) की विचार - धारा सूत्रकार ने बतायी है। उसके मत के अनुसार प्रत्यक्ष ही प्रमाण है । वह भूतकाल और भविष्य काल को नहीं मानता है । उसके मतानुसार आत्मा कोई चीज़ नहीं है । पाँच भूत जब देहाकार रूप में परिणमते हैं तब उसमें चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है और जब पाँच भूत बिखर जाते हैं तो चैतन्य भी विलय हो जाता है। ऐसा मानकर वे आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं मानते, तथा पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते हैं । पुनर्जन्म के सिद्धान्त को न मानने से उन्हें विचार ही नहीं आता है कि इसका भूत और भविष्य क्या था और क्या होगा ? उपर्युक्त उनकी मान्यता असंगत और विविध प्रत्यक्ष एवं अनुमानादि-प्रमाणों से बाधित है । सूत्रकार ने " एक- एक ऐसा मानते हैं" यों कहकर उनके पक्ष का तिरस्कार किया है। चार्वाकों का उक्त कथन भ्रमपूर्ण है। क्योंकि पृथ्वी आदि भूतों के गुण और हैं तथा आत्मा का गुण (चैतन्य) और ही है । असाधारण गुणों की भिन्नता भिन्न वस्तु को सिद्ध करती है । अगर यह कहा जाय की अलग-अलग भूत में चैतन्य को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं हैं परन्तु सब भूत मिलकर जब शरीररूप में परिणमते हैं तब उनसे चैतन्य की उत्पत्ति होती है तो इसका समाधान यह है कि जो गुण प्रत्येक पदार्थ में भिन्न अवस्था में नहीं होता वह उसके समुदाय में भी नहीं हो सकता । जिस प्रकार रेत के एक कण में तेल नहीं है तो वह रेत के समुदाय में भी नहीं हो सकता । उसी तरह पृथ्वी आदि भूतों में पृथक् २ चैतन्य गुण नहीं है तो वह उनके समूह में भी नहीं हो सकता । अगर भूतों में अलग चैतन्य माना जाय तो जब भूत शरीर का रूप धारण करते हैं तब पाँच चैतन्य पाये जाने चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं है । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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