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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४६.] [आचाराङ्ग-सूत्रम् अच्छेद्योऽयमदाह्योऽमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ अर्थात्-इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी इसे गला नहीं सकता और हवा इसे सुखा भी नहीं सकती है। आत्मा कभी नहीं कटने वाला, नहीं जलने वाला, नहीं गलने वाला, न सूखने वाला है । यह नित्य, सर्व व्यापी, स्थिर, अचल और सनातन (चिरन्तन) है। ___ तात्पर्य यह है कि राग-द्वेष से रहित होने से समताभाव का विकास होता है और समता के विकास होने से देह के कष्टादि का आत्मा पर असर नहीं पड़ता है। सच्चा समभावी साधक श्रात्मा का स्वरूप सच्चिदानन्दमय समझता है । अतः उसे दुख का अनुभव ही कैसे हो सकता है। उसकी आत्मा तो शाश्वत, चैतन्यमय और आनन्द का सागर है अवरेण पुचि न सरंति एगे किमस्स तीयं ? किं वा प्रागमिस्सं ? भासंति एगे इह माणवायो जमस्स तीयं तमागमिस्सं । नाईयमटुं न य भागमिस्सं अटुं नियच्छति तहागया उ। विहूयकप्पे एयाणुपस्सी निज्मोसइत्ता खवगे महेसी। संस्कृतच्छाया- अपरेण सह पूर्वन स्मरन्त्येके किमस्यातीतं ? किं वाऽऽगमिष्यति । भाषन्ते एके इह मानवा यदस्यातीतं तदैवागमिष्यति । नातीतमर्थ न चागामिनमर्थ नियच्छन्ति तथागतास्तु । विधूतकल्पः एतदनुदी निझापयिता क्षपकः महर्षिः । शब्दार्थ-एगे-कितनेक । अवरेण भविष्य में होने वाले के साथ । पुवि-भृतकाल को। न सरन्ति याद नहीं करते हैं कि । अस्स-इस जन्तु का। किं तीयं भूतकाल में क्या हुआ । किं वा आगमिस्सं भविष्यकाल में क्या होगा ? एगे कितनेक । भासंति कहते हैं कि । इह-संसार में । माणवायो-मनुष्य को । जमस्स तीयं जो भूतकाल में प्राप्त हुआ । तमागमिस्सं= वही भविष्य में भी मिलेगा। तहागया उ=तथागत-तत्त्वज्ञानी तो। नाईयममु अतीत अर्थ को ही भविष्य काल का नहीं। न य आगमिस्स अटुंन भविष्य काल के अर्थ को भूतरूप में । नियच्छंति-स्वीकार करते हैं । विहूयकप्पे पवित्र आचार वाले । महेसी-महर्षि । एयाणुपस्स = यह जानकर । निझोसइत्ता खवए कर्मों को धुनकर क्षय करें। भावार्थ-इस जगत् में कितनेक ऐसे अज्ञानी प्राणी भी हैं जो भूत और भविष्यत् काल के बनावों पर विचार ही नहीं करते कि यह जीव पहिले कैसा था और आगामी काल में क्या होगा और कितने तो ऐसा भी मानते हैं कि इस जीव को पहिले जो सुख या दुख मिल गया वही भविष्य में भी For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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