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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीय अध्ययन तृतीयोदेशक ] [ २४५ लिए ही तप करते हैं। किसी कामना को लेकर किया हुआ तप आत्मिक उन्नति का कारण नहीं हो सकता है। वैसे प्रत्येक क्रिया का फल तो अवश्य ही होता है चाहे वह बुरा हो या अच्छा, अल्प हो या अधिक । परन्तु जो किसी कामना को लेकर तप करता है वह तप के फल को हीन करता है । वह हीरा देकर बदले काँच खरीदता है । तप-रूप कीमत देकर वह स्वर्ग सुख खरीदता है अर्थात् हीरा देकर कांच खरीदता है । यह बुद्धिमानी नहीं हो सकती । प्रश्न हो सकता है कि जब स्वर्ग की कामना से तप आदि करना ठीक नहीं तो शास्त्रकार ने स्वर्ग और स्वर्ग-सुखों का वर्णन क्यों किया है ? इसका समाधान यह है कि शास्त्रकार ने लोक का स्वरूप समझाने के लिए ही स्वर्ग का वर्णन किया है, न कि स्वर्ग में होने वाले पौद्गलिक सुख के लिए तप आदि करने का कहा है। शास्त्रकारों ने उसे भी स्वर्ण की बेड़ी कहकर अन्त में हेय माना है । पर्य यह है कि त्याग और तप का उद्देश्य राग और द्वेष को घटाकर समताभाव की वृद्धि करने का ही है। इसी समता योग की सिद्धि के लिए त्याग, तपश्चर्या और संयम हैं अतः संयमी पुरुषों को समता की ओर खास ध्यान देने की आवश्यकता है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir जिस साधक ने समता-योग की साधना की है वह राग-द्वेष से परे हो जाता है अ र यहाँ तक कि उसका देह भान भी चला जाता है। ऐसा साधक किसी के द्वारा छेदा, भेदा, जलाया और मारा नहीं जा सकता है क्योंकि ये सभी धर्म देह में पाये जाते हैं । श्रात्मा में नहीं । देह में होने वाली ये क्रियाएँ उसकी श्रात्मा के सहजानन्द में किसी प्रकार की बाधा नहीं डाल सकती हैं। इसके लिए गजसुकुमाल का दृष्टान्त विचारणीय है । गजसुकुमाल के मस्तक पर सोमिल ब्राह्मण ने मिट्टी की पाल बाँधकर उसमें धग - अङ्गारे डाल दिये । गजसुकुमाल का मस्तक खिचड़ी के समान खद्बद् करने लगा । लेकिन उसके अटल समता योग में किसी तरह का अन्तर नहीं पड़ा । उनके हृदय में सोमिल के प्रति अंशमात्र भी द्वेष नहीं हुआ वरन् उन्होंने सोचा कि सोमिल ने मेरा बड़ा भारी उपकार किया है। उसने मेरे मस्तक पर अङ्गारे डाल कर मेरे कर्म रूपी वन में आग लगाई है ताकि मेरा कर्म रूपी वन शीघ्र ही जल सके। इसमें उसने बुरा ही क्या किया ? मेरा क्या बिगड़ रहा है ? उसने मुझे सहायता की है। मैं कर्मों को जलाना चाहता था और उसने अङ्गारे डालकर उन्हें जलाना शुरू कर दिया । अहा ! सोमिल का कितना उपकार ! सोमिल ने मुझे मुक्ति-रूपी रमणी से विवाह करने के अवसर पर यह पगड़ी बँधायी है । अहा ! मुनि की समता !! गजसुकुमाल मुनि ऐसे भीषण संकट में भी अपने अध्यवसाय इतने निर्मल रख सके। उन्हें सोम के प्रति द्वेष नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि वे देह भान से परे हो चुके थे । उन्होंने समझा कि जो जल रहा है वह मैं नहीं हूँ और जो मैं हूँ वह कभी जल नहीं सकता । शरीर जल रहा है. यह तो किसी दिन जलने का ही था । जो मेरा निजका स्वरूप है वह तो अखण्डित ही है । ऐसे निर्मल परिणामों के कारण उन्होंने शिव - रमणी से पाणिग्रहण किया। मुक्ति रूपी वधू ने उनका स्वागत किया । कैसी अदभुत मुनि की समता !! समता का विकास होने पर देह-भान विलीन हो जाता है यह गजसुकुमाल मुनि के उदाहरण से स्पष्ट है। गीता में भी कहा है कि: नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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