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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शीतोष्णीय नाम तृतीय अध्ययन — तृतीयोद्देशकः— ------- ( त्याग - रहस्य एवं भाव- जागरण ) Br इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक में संयम और चित्तवृत्ति का सम्बन्ध बताकर हर्ष और विषाद से पर रहकर समभाव के श्रानन्द का संवेदन करने का मार्ग बताया गया है तथा द्वितीय उद्देशक में निरा'सक्त बनने के लिए त्याग की आवश्यकता का प्रतिपादन करके त्यागी का स्वरूप बताया है। अब इस अध्ययन के इस उद्देशक में त्याग का रहस्य समझाते हुए सूत्रकार यह फरमाते हैं कि निष्क्रियता मात्र या सीमित नहीं है और त्याग का अर्थ मात्र निष्क्रिय हो जाना ही नहीं है परन्तु जीवन के पल-पल में उपस्थित होने वाले प्रलोभनों और संकटों के बीच अपने मन को समतोल रख सकने की योग्यता अथवा सत्क्रियाओं में सदा जागृत रह सकना यही सच्चा त्याग है । यही त्याग का गूढ़ आशय है । निष्क्रियत्व या निवृत्ति का अर्थ सत्प्रवृत्ति से समझना चाहिए क्योंकि जब तक योगों की सत्ता है तब तक सूक्ष्म क्रिया तो अनिवार्य है । कदाचित् काया को निष्क्रिय रख ली जाय तदपि मन की क्रिया तो चालू रहती ही है। इससे यह समझना चाहिए कि जब तक योग है तब तक प्रवृत्ति है ही । इससे सत्क्रियाओं के प्रति सतत जागृत रहने का सूत्रकार ने इस उद्देशक में कहा है: संधिं लोयस्स जाणित्ता, प्रायत्रो बहिया पास तम्हा न हंता न विघा - यए, जमिणं अन्नमन्नवितिगिच्याए पडिलेहाए न करेइ पावकम्मं किं तत्थ मुणी. कारणं सिया ? संस्कृतच्छाया—संधि लोकस्य ज्ञात्वा ( न प्रमादः श्रेयान् ) आत्मनो बहिरपि पश्य तस्मान हन्ता (स्यात्) न विघातयेत्, यदिदमन्योन्यविचिकित्सया प्रत्युपेक्ष्य न करोति पापकर्म किं तत्र मुनिः कारणं स्यात् ? शब्दार्थ - संधि-अवसर को । जाणित्ता = जानकर उत्पन्न करने वाला कार्य न करे । आओ अपने समान ही । पास = देख | तम्हा = इसलिये । न हंता = न तो स्वयं जीवों की हिंसा करे । न विधायन श्रन्य से हिंसा करावें । जमिणं=जो | अन्नमन्नवितिगिच्छाएं एक दूसरे की शर्म या भय का । पडिलेहाए= विचार करके । पावकम्मं न करेइ = पापकम् [ न करे तो । किं=क्या । तत्थ इस विषय में । मुणी = सुनित्व | कारणं सिया = कारण होगा | 1 T For Private And Personal । लोयस्स=प्राणियों को दुख बहिया अन्य बाह्य जीवों को ।
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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