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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३८ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् को भावार्थ - हे जम्बू ! सुअवसर प्राप्त हुआ जानकर प्रमाद नहीं करना चाहिए । अर्थात् जीवलोक दुख उत्पन्न करने वाले कार्य न करने चाहिए। जैसे स्वयं को सुख प्रिय है वैसे ही अन्य को भी प्रिय है । दूसरे प्राणियों को भी अपने समान देखो । आत्मोपम समझ कर किसी जीव की हिंसा न करनी चाहिए और अन्य से हिंसा नहीं करवानी चाहिए। कोई परस्पर लज्जा से अथवा भय से ( अन्तर में पापवृत्ति होते हुए भी ) पापकर्म नहीं करता है तो इसीसे क्या वह मुनि कहा जा सकेगा ? कदापि नहीं । समता की जहां उपेक्षा है वहां मुनित्व नहीं । समभाव से पापकर्म नहीं करता है तो ही सच्चा मुनि कहा जा सकता है । विवेचन – इस उद्देशक को आरम्भ करते हुए सूत्रकार ने प्राप्त सुअवसर का सदुपयोग और प्रमादनिद्रा को त्याग कर भाव जागरण करने का फरमाया है। त्याग मार्ग अङ्गीकार करने के पश्चात् सतत सावधान रहने की आवश्यकता है क्योंकि इस अवस्था में सेवन किया हुआ प्रमाद विशेष हितकर्त्ता है । बाह्य पदार्थों का त्याग कर देने मात्र से अपने आपको त्यागी मान लेना और इससे इन्द्रियों एवं चित्त के प्रति सावधानी रखना अति भयावह है । इन्द्रियों एवं चित्त पर काबू न रखा जायगा तो पूर्वाभ्यासों के कारण विषयों की ओर उनकी विशेष गति रहेगी इससे साधना निष्फल हो जायगी । इन्द्रियों और चित्त पर काबू न रक्खा जाय तो छोड़े हुए पदार्थों से कोई मतलब सिद्ध नहीं हो सकता । पदार्थों का त्याग वृत्तियों पर विजय प्राप्त करने का एक साधन है। इससे वृत्तियों पर विजय पाने में सहायता मिलती है। वस्तुतः सच्चा त्याग तो वह है कि वृत्तियाँ कभी उन बाह्य पदार्थों की ओर जावें ही नहीं । कामना का नाश करना ही वास्तविक त्याग है । पदार्थों के त्याग देने पर भी चित्त में यदि कामना रह गयी तो वह त्याग यथेष्ट फलदायक नहीं हो सकता । पदार्थों के त्याग से कामना के विनाश करने में सहायता मिलती है। मतलब यह है कि पदार्थ त्याग एक प्रकार का साधन है-निमित्त है जो उपादान की शुद्धि के लिए उपयोगी है । परन्तु उपादान को भूलकर मात्र निमित्त को ही साध्य मानकर संतोष कर लिया जाय तो यह लाभप्रद नहीं हो सकता । साधनों और निमित्तों को प्राप्त कर साध्य को सिद्ध करने के लिए विशेष तत्पर होना चाहिए न कि साधनों को पाकर साध्य के प्रति उपेक्षा करनी चाहिए । इसलिए सूत्रकार ने फरमाया है कि त्याग मार्ग तुम्हें साधन-रूप में मिला है इसे पाकर तुम्हें साध्य के प्रति विशेष 'जागृत और सावधान रहना चाहिए। इस अवसर को प्रमाद में नहीं व्यतीत कर देना चाहिए । 1 शास्त्रकार ने सूत्र में “संधि" पद दिया है। संधि दो प्रकार की है - (१) द्रव्यसंधि और (२) भावसंधि । भींत आदि में जो छेद पड़ जाता है उसे द्रव्यसंधि कहते है और इसी तरह कर्मरूपी भित्ति में छेद पड़ जाना भावसंधि है | दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम से अर्थात् उदयप्राप्त दर्शनमोहनीय क्षय से और शेष के उपशान्त होनेसे जो सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है यह भावसंधि है । अथवा ज्ञानावरणीय के विशिष्ट क्षयोपशम से जो चारित्र प्राप्त होता है यह भावसंधि है । इन्हें जानकर प्रमाद करना श्रेयस्कर नहीं है । एक व्यक्ति जेलखाने में बन्द है । वह जेलखाने से मुक्त होना चाहता है किन्तु उसके चारों ओर खड़ी हुई दिवालें उसे मुक्त नहीं होने देतीं। संयोग से दिवाल में छेद हो गया और उसने यह जान लिया तो उसे बाहर निकल जाने में प्रमाद नहीं करना चाहिए। अगर वह उस समय प्रमाद करता है तो फिर उसे उसी जेलखाने में जाने कितने समय तक बन्द रहना पड़ेगा । जिस प्रकार उसका प्रमाद करना श्रेयस्कर नहीं है उसी कार कर्म की मिथ्यात्वादि दिवालों से घिरे हुए जेलखाने में यह जीव कैद है; संयोग से सम्यक्त्व, ज्ञान For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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