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तृतीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ]
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बुद्धिमान् साधक राग और द्वेष का समूल परिहार करे । बुद्धिमान् साधक राग और द्वेष को अहितकर जानता है । संसार के लोग इसी दुखमय दिखाई देते हैं ऐसा समझ कर विषयादि लोकसंज्ञा से दूर रहकर संयम में पराक्रम करना चाहिए ।
विवेचन-प्रकृत सूत्र में रागद्वेष का परिहार करने का मुख्य उपदेश दिया हुआ है। रागद्वेषात्मक क्रिया कर्मबन्धन का कारण है । तोब आसक्ति तीव्र कर्मबन्धन का कारण है और कर्मबन्धन से संसार बढ़ता है और संसार से दुख पैदा होता है । तात्पर्य यह हुआ किशब्दादि विषयों के मनोज्ञ और अमनोज्ञ होने पर उनमें राग और द्वेष करना यही संसार के दुखों का कारण है । हिंसक-वृत्ति और आसक्ति पाप है और पाप दुखरूप है। अतएव सुख के अभिलाषी प्राणियों का यह कर्त्तव्य है कि विषय और विषयों की ओर दौड़ती हुई वृत्तियों को तथा भोग भोगने की तमन्ना के भेद को समझ कर आसक्ति से सदा दूर रहें।
संसार और कर्म के बीज दो ही हैं (१) राग और (२) द्वेष । जहाँ राग है वहाँ द्वेष है यह निश्चित है । कारण यह है कि राग और द्वेष दोनों का उत्पत्ति स्थान एक ही है। जहाँ एक के प्रति राग होता है वहाँ दूसरे के प्रति द्वेष होता ही है। राग के बिना द्वेष नहीं और द्वेष के बिना राग नहीं । ये दोनों बीज ही संसार वृक्ष को फलाफूला रखते हैं। संसार-वृक्ष के कड़वे फलों को खाकर प्राणी दुखों का अनुभव कर रहे हैं इसलिए रागद्वेष में नहीं फंसते हुए कर्म और उसके कारणों को ज्ञ-परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा द्वारा त्यागना चाहिए । लोकवृत्ति की तरफ न झुककर, संसार की वृत्ति को जानकर, विषयपिपासा
और धनादि के आग्रहरूप लोकसंज्ञा का परित्याग कर निरासक्त होकर संयम में पराक्रम करना ही बुद्धिमानों का काम है । जहाँ निरासक्ति का प्रकाश प्रकट हुआ वहाँ अन्य गुणों के लिए प्रयत्न की आवश्यकता नहीं रहती। अन्य गुण तो सहज प्रकट हो ही जाते हैं।
___इस उद्देशक में भावनिद्रा और भावजागरण का स्वरूप बताया गया है। महामोह की निद्रा में पड़े हुए प्राणी अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं। इसका एकमात्र कारण अज्ञान है।
आत्मद्रव्य और जड़वस्तु के भेदबुद्धि का विवेक होना ही ज्ञान है । ऐसा ज्ञानी द्रव्य से सुप्त हो तो भी वह जागरूक ही है । सदा जागृत बनने के लिए आसक्तिरूप निद्रा का त्याग करके निरासक्त भाव से संयम की आराधना करनी चाहिए।
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इति प्रथमोद्देशकः
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