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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २१४ ] [आचाराङ्गसूत्रम् __जो कर्मों का क्षय करके कर्म-रहित हो जाता है उसके लिए फिर सांसारिक व्यवहार नहीं रहता है अर्थात् वह नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, पर्याप्त, अपर्याप्त, बालक, कुमार, युवक, वृद्ध आदि सांसारिक पर्यायों से छूट जाता है और सिद्ध हो जाता है । जबतक कर्म हैं तबतक उपाधि विद्यमान हैं ! आध्यात्मिक शब्दों की परिभाषाओं में से अनेक शब्दों के विषय में विचार-भेद होता आया है और हो रहा है। इस सूत्र में आये हुए "कर्म' शब्द की परिभाषा भी विचारणीय है। 'कर्म' शब्द का अर्थ अगर क्रिया ही लिया जाता है तो जबतक सिद्ध-अवस्था प्राप्त नहीं होती वहाँ तक कोई भी प्राणी अकर्मा नहीं हो सकता क्योंकि वहाँ तक क्रियाओं का सद्भाव है। यह "श्रकर्मा दशा" मात्र लक्ष्य बिन्दु हो सकती है । व्यावहारिक दृष्टि-बिन्दु से “कर्म" शब्द का अर्थ आसक्ति से होने वाली क्रिया और अकर्मा' का अर्थ निरासक्त क्रिया करने वाला हो तो यह भी सुसंगत है। सूत्रकार ने "अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ" इस पद के द्वारा यह सूचित किया है कि जो रागद्वेष-रहित होकर निरासक्त बुद्धि से क्रिया करता है उसे सांसारिक सम्बन्ध स्वाभाविकतया रहता ही नहीं है। . संसार का अर्थ आसक्तिपूर्ण व्यवहार है। इसी आसक्ति से उपाधियाँ पैदा होती हैं । सूत्रकार ने यह फरमाया है कि 'कर्म से उपाधि होती है। इसका अर्थ यह है कि आसक्तिमय क्रियाओं से ही दुखों का उद्भव है। आगे आने वाले सूत्र में सूत्रकार ने क्रिया करते हुए रागद्वेष का परिहार करने के लिए फरमाया है । इसलिए प्रत्येक क्रिया करते हुए निरासक्त रहना चाहिए इससे सभी उपाधियों से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। ___ कम्मं च पडिलेहाए, कम्ममूलं च जं छणं पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे तं परिन्नाय मेहावि ! विइत्ता लोग, वंता लोगसन्नं से मेहावी परिकमिजासि त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया-कर्म च प्रत्युपेक्ष्य, कर्ममूलं च यत्क्षणं, प्रत्युपेक्ष्य सर्व समादाय द्वाभ्यामन्ताभ्यां सहादृश्यमानः तत् परिज्ञाय मेधाविन् ! ज्ञात्वा लोक, वान्त्वा लोकसंज्ञां स मेधावी पराक्रमेदिति बर्वामि । शब्दार्थ-कम्मं च कर्म के स्वरूप को । पडिलेहाए जानकर । जं च छणं हिंसक वृत्ति को । कम्ममूलं च पडिलेहिय=कर्म की जड़ समझ कर उससे दूर रहना चाहिए। सव्वं-सब । समायाय उपाय ग्रहण करके । दोहिं अंतेहिं दोनों राग और द्वेष से । अदिस्समाणे दूर रहे । मेहावी-बुद्धिमान् ! । तं परिन्नाय यह जानकर । लोगं विइत्ता दनियाँ को जानकर । लोगसन्नं लोकसंज्ञा का । वंता त्याग करके । से मेहावी-चुद्धिमान व्यक्ति । परिकमिजासि-संयम में पराक्रम करे। भावार्थ-इस प्रकार कर्म के यथार्थ स्वरूप को जानकर और हिंसकवृत्ति को कर्म की जड़ समझ कर उससे दूर रहना चाहिए । यह सब स्वरूप जानकर कर्म से दूर होने के सभी उपायों को ग्रहण करके For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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