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शीतोष्णीय नाम तृतीय अध्ययन - द्वितीयोदेशक
( भावनिद्रा का फल और त्याग मार्ग की आवश्यकता )
प्रथम उद्देशक में भाव-निद्रा और भाव जागरण का निरूपण किया गया है। इस द्वितीय उद्देशक में भाव-निद्रा का अशान्तिमय विपाक और भाव- जागरण के लिए आवश्यक त्यागमार्ग का वर्णन किया गया है । भाव-निद्रा का दुखमय स्वरूप और कटुक फल को बताकर सूत्रकार भाव -निद्रा में सोये हुए प्राणियों को सावधान करते हैं । भाव-निद्रा आत्मा की वैभाविकदशा का परिणाम है और वैभाविक अवस्था में परिणाम कितना अनिष्ट आता है यह सहज ही जाना जा सकता है। भाव-निद्रा के स्वरूप के वर्णन के बाद उसके प्रति अनिष्ट परिणामों के वर्णन करने का उद्देश्य भाव-निद्रा से सुप्त प्राणियों को सचेत करना है । सूत्रकार ने केवल भाव-निद्रा और उसकी भयंकरता ही नहीं बताई है लेकिन उस निद्रा से मुक्त होने के लिए उपाय भी बताये हैं ।
जिस प्रकार कुशल वैद्य रोग को पहचान कर उसका स्वरूप बताता है, उससे होने वाले अनिष्ट परिणामों को बताता है और साथ ही साथ रोग से मुक्त होने का उपाय और रोग का उपद्रव फिर न हो इसके लिए पथ्य भी बताता है । अगर वह वैद्य केवल रोग और उसके अनिष्ट परिणामों को ही बतावे और उससे मुक्त होने और स्वस्थ रहने के उपाय न बतावे तो वह वैद्य उतना हितकारी नहीं हो सकता । सूत्रकार जगज्जीवों के परम हितैषी हैं अतएव उन्होंने भाव-निद्रा रूपी रोग और उसके अनिष्ट परिणाम बतला कर इस रोग से मुक्त होने के लिए त्यागमार्ग रूपी औषधि बतलायी है और व्रतनियमादि का पालनरूप पय का निर्देश किया है जिसके कारण चिर आत्मिक स्वास्थ्य बना रहता है। वैभाविकदशा के निवारण के लिए सूत्रकार ने त्यागमार्ग का निरूपण किया है और उसमें भी सर्व प्रथम सूत्र में हिंसा का प्राधान्य और उसका प्रयोजन बताया है ।
हिंसा क्यों ? इस प्रश्न का समाधान सूत्रकार ने प्रथम सूत्र में किया है। अहिंसा के सच्चे आराधक हुए बिना व्यक्ति और समष्टि का पूर्ण विकास नहीं हो सकता । अहिंसा के विश्व बन्धुत्व की भावना से ओतप्रोत सिद्धान्त के पालन से ही व्यक्ति और समष्टि के हित सुरक्षित रह सकते हैं । जो सुख हमें प्रिय हैं वे ही सुख दूसरों को भी प्रिय हैं, अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट पहुंचाना महा अधर्म हैऐसे विचार वाले साधक का ही विकास सम्भव है। ऐसा ही साधक भाव जागरण कर सकता है । यही सूत्रकार सूत्र द्वारा फरमाते हैं:
जाई च वुद्धिं च इहज ! पासे, भूएहिं जाणे पडिलेह सायं । तम्हाऽतिविज्जे परमं ति पच्चा सम्मत्तदंसी न करेइ पावं ।
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