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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तृतीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २०६ संस्कृतच्छाया— जरामृत्युवशोपनीतः नरः सततं मूढः धर्म नाभिजानाति । शब्दार्थ — जरामच्चुवसोवणीए =जरा और मृत्यु के सपाटे में फँसा हुआ । सययं मूढे== इससे सदा मूढ बना हुआ | नरे= मनुष्य | धम्मं धर्म को । नाभिजाइ नहीं जानता है । भावार्थ—जो प्राणी जरा और मृत्यु के सपाटे में फँसा हुआ है और इससे सदा किंकर्त्तव्यविमूढ बना हुआ है वह प्राणी धर्म को नहीं जान सकता है । विवेचन - इस सूत्र में भावनिद्रा से सुषुप्त प्राणियों की दशा बतलायी है। जो महामोह के कारण इस निद्रा में पड़े हुए हैं वे धर्म के रहस्य को नहीं समझ सकते हैं । महामोह एक बड़ा घन आवरण है । जिस प्रकार आँख के आगे आवरण आ जाने से सामने रही हुई वस्तु भी स्पष्ट नहीं दिखाई देती है उसी प्रकार मोहांध प्राणी भी सामने रही हुई वस्तु के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता है और भले-बुरे का विवेक भी नहीं कर सकता है। इसका परिणाम यह होता है कि वह वस्तु के वास्तविक स्वरूप को छोड़कर उसके बाह्य स्वरूप को ही वस्तु मान लेता है और उसे प्राप्त करने के लिए अधीर हो उठता है । इस महामोह के कारण वस्तु के प्रति आकर्षण पैदा होता है और साथ ही 'यह वस्तु कहीं चली न जाय' इस बात का सदा भय बना रहता है । यही भय संसार के प्राणियों की विह्वलता का कारण है। एक तरफ तो वस्तु कहीं चली न जाय इस बात की चिन्ता बनी रहती है और दूसरी तरफ जबतक वस्तु चली न जाय तबतक उसका मनमाना उपभोग करने की भंखना जागृत होती है परन्तु जहाँ चिन्ता, भय और घबराहट है वहाँ सच्चा उपयोग तो क्या उपयोग का विचार तक कैसे हो सकता है ? इसी कारण से प्राणी को बुढापे और मृत्यु का डर बना रहता है और जबतक ये न आ जावें तबतक वह भोग्य पदार्थों का पूरा पूरा मनमाना उपभोग करने के लिए विह्वल और अधीर हो जाता है। कहीं बुढापान जाय, कहीं मौत आकर खड़ी न रह जाय, कहीं यह वस्तु नष्ट न हो जाय, इन्हीं विचारों से जवानी के प्रति और भोग्य पदार्थों के प्रति मोह ही नहीं परन्तु महामोह पैदा होता है और प्राणी विह्वल और भोग में अत्यन्त आसक्त बन जाता है । जब इस प्राणी को यह भान होगा कि बुढापा, यौवन और मृत्यु ये सभी स्थितियाँ आत्मा की परन्तु मान रूप देह की हैं, जब देह और आत्मा का भिन्नत्व प्रतीत होगा, जब शुद्ध चैतन्य विनाशी स्वरूप का ज्ञान होगा तब प्रारणी निरासक्त होकर पदार्थों का उपभोग नहीं परन्तु सच्चा 'उपयोग कर सकेगा और धर्म के वास्तविक रहस्य को समझ सकेगा । देह और आत्मा की भिन्नता के सच्चे " ज्ञान के अभाव से ही महामोह पैदा होता है । मोह से व्याकुलता होती है। इस व्याकुलता का अंत करने से ही धर्म का स्वरूप समझा जा सकता | अन्यथा नहीं । शंका - ऊपर यह कहा गया है कि संसार के प्रत्येक प्राणी को जरा का डर बना रहता है किन्तु देवों को जरा का डर नहीं है वे अजर इसीलिये कहाते हैं- उन्हें तो जरा का डर नहीं है । For Private And Personal समाधान - यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि देवताओं में भी जन्म की स्थिति और च्यवन की स्थिति में शरीर के वर्ण, कान्ति एवं लेश्यादि में अन्तर अवश्य हो जाता है । उत्पन्न होते समय जो लेश्या, बल,
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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