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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २१० ] [ श्राधाराङ्ग-सूत्रम् सुख, प्रभुत्व और वर्ण होता है वह च्यवन के पहिले नहीं रहता । उनमें हानि हो जाती है इसलिए वहाँ भी जरा का सद्भाव है । संसारान्तरवर्त्ती सभी प्राणी जरा और मृत्यु के सिकंजे में फँसे हुए अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं और सच्चे स्वरूप को भूल रहे हैं । जब मिध्यात्व रूप महा मोहनिद्रा दूर होगी तब यह व्याकुलता दूर हो सकती है। अतएव इस मोहनिद्रा का नाश करके भाव जागरण करना चाहिए। पासिय उरपाणे अप्पमत्तो परिव्वए, मंता य मइमं पास | संस्कृतच्छाया— दृष्ट्वा आतुरप्राणिनोऽप्रमत्तः परिव्रजेत्, मत्वा च मतिमन् ! पश्य । शब्दार्थ — उरपाणे-मोह से विह्वल होते हुए प्राणियों को । पासिय-देखकर | अप्पमत्तो = सावधान होकर । परिव्वए = संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए । मइमं हे बुद्धिमान् ! पास = यह देख कि | मंता य= मोह से विह्वलता होती मानकर विह्वल होने की इच्छा न कर । भावार्थ-भावनिद्रा से सोये हुए प्राणियों को विह्वल देखकर संयम में सावधानी से प्रवृत्ति करनी चाहिए | हे बुद्धिमान् मुनि ! मोहनिद्रा से उत्पन्न होने वाले दुखों को जानकर तू इस प्रकार विह्वल होने की इच्छा न कर अर्थात् सदा सावधान रह ॥ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में मोहनिद्रा में सोये हुए प्राणियों की विह्वलता बताकर सूत्रकार ने उस निद्रा से जागृत होने के लिए फरमाया है । मोहनिद्रा का अनिष्ट परिणाम बतलाते हुए सूत्रकार ने स्पष्ट फरमाया है कि मोह से प्राणी किंकर्त्तव्यविमूढ बन जाते हैं। उनकी ऐसी मूढ़ दशा देखकर उससे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। दूसरों के कार्यों और उनके परिणामों को देखकर स्वयं शिक्षा लेनी चाहिए । मोह से तुर बने हुए प्राणियों की दुर्दशा से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि हम मोहनिद्रा से जागृत हों और सदा उससे बचने की कोशिश करें । जब तक आत्मा और जड़ पदार्थों की भिन्नता हृदय से स्वीकृत नहीं होती तब तक यह भावनिद्रा, यह महामोह और इसका फल विह्वलता एवं जरा और मृत्यु का भय सदा बना रहने का ही है । जिस क्षण इस जीव ने यह अनुभव कर लिया कि "मैं कुछ और हूँ और यह जड़ पदार्थ कुछ और हैं" उसी क्षरण यह मोहनिद्रा टूट जायगी और जीव को अपने स्वरूप का भान होने लगेगा । तब वह बाह्य जड़ वस्तुओं के लिए विह्वल न होगा, उसे जरा और मृत्यु नहीं डरा सकेगीं। जड़ वस्तुओं के गाढ संसर्ग से आत्मा का सहज सुन्दर स्वरूप भुला दिया जाता है और बाह्य वस्तुओं के प्रति आकर्षण पैदा होता है, जिन्हें प्राप्त करने के लिए प्राणी अत्यन्त परिश्रम एवं हिंसादि कार्य करते हैं और उन वस्तुओं को टिकाये रखने के लिए, उनका उपभोग करने के लिए सदा लालायित रहते हैं और उनके चले जाने की आशंका से जरा और मृत्यु से सदा भयभीत रहते हैं । यही प्राणियों की विह्वलता का कारण है । दुखवित प्राणियों को देखकर एवं उनसे शिक्षा ग्रहण कर संयम के मार्ग में प्रवृत्ति करनी चाहिए । सम्यक्त्व की निशानी और मिथ्यात्व निद्रा के भङ्ग हो जाने का यही चिह्न है कि यात्मद्रव्य और जडद्रव्य की भिन्नता का हार्दिक अनुभव हो जाय। इस भिन्नता के अनुभव होते ही संयम के लिए स्वतः For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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