SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २०८ ] [ श्राचाराङ्ग-सूत्रम् यह जानते हैं और सुख तथा दुख की जरा भी परवाह किये बिना संयममाग में आने वाले अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंगों को समान रूप से सहन कर लेते हैं, संयम में कठिनाई का अनुभव नहीं करते हैं और जागृत रहकर वैर-विरोध को दूर करते हैं ऐसे वीर-वीर मुनि ही दुखों से मुक्त होते हैं । विवेचन -- प्रस्तुत सूत्र में सच्चे ज्ञानी और सच्चे मुनि की व्याख्या दी गई है । जैनधर्म गुणपूजा स्वीकार करता है व्यक्ति पूजा नहीं । जिस व्यक्ति में साधुता के - मुनिधर्म के गुण पाये जाते हैं वह व्यक्ति चाहे कोई भी हो, चाहे किसी भी वेश का हो, चाहे किसी भी पंथ या सम्प्रदाय का हो, अवश्य ही पूजनीय है। जैनधर्म विश्वधर्म है; इस में प्रत्येक प्राणी को प्रवेश करने का अधिकार है; यहाँ मात्र गुणों की पूजा है। मुनि बनने के लिए क्या २ गुण चाहिए सो इस सूत्र में बताये गये हैं । साधु की साधुता और ज्ञानियों का ज्ञान मापने का मापयंत्र इस सूत्र में बताया गया है। जो व्यक्ति शब्द, रूप, गंध, रस, और स्पर्श इन विषयों में समभाव रख सकता है वही सच्चा साधु है, वही सच्चा ज्ञानी है। जो सुख और दुख में समभाव रख सकते हैं वे ही श्रात्मा के चैतन्य स्वरूप को जान सकते हैं, वे ही ज्ञानी कहे जा सकते हैं, वे ही शास्त्रों और वेदान्तों के अभ्यासी, वे ही धर्म के धुरन्धर और निर्विकल्प सुख के जानने वाले कहे जा सकते हैं। सुख-दुख में समभाव रखना यह एक कसौटी है जिस पर साधुता और ज्ञानीपन की परीक्षा होती है। जो व्यक्ति सुख-दुख के प्रसंगों में अपने जीवन की तुला को सम रख सकता है, जो सुखद एवं दुखद संयोगों में भी अपनी समतोलता नहीं खो बैठता है वही सचमुच ज्ञानी, साधु, शास्त्रों का पारगामी, धर्म का और ब्रह्ममय निर्विकल्प सुख का दृष्टा है । ऐसा मध्यस्थवृत्ति वाला व्यक्ति ही अपने विज्ञान के बल से संसार के सच्चे स्वरूप को जानता है । जो शब्दादि विषयसंगों का त्याग करता है वस्तुतः वही संसार के सच्चे स्वरूप को जानता है। ऐसा व्यक्ति ही सच्चा मुनि है। श्रुत - चारित्र रूप धर्म के स्वरूप को समझने वाला, ज्ञान, दर्शन और चारित्र का कुटिलतारहित पालन करने के कारण सरल, सर्वोपाधि से रहित साधु इस संसार रूप चक्रवाल का मूल कारण आसक्ति है ऐसा समझता है । जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि दुखमय संसार का और विषयासक्ति का राग तथा द्वेष के साथ क्या और कैसा सम्बन्ध है इस बात का उसे पूरा-पूरा भान होता है। इस संसार को और विषयासक्ति को राग• द्वेषात्मक समझ कर जो त्याग करता है वही संसार के संग का ज्ञाता हो सकता है। रन्तर प्रन्थि से रहित होकर, शीत एवं उष्णरूप परिषहों को सहन करता है, सुख की जिसे कामना नहीं है और जो दुख से व्याकुल नहीं होता है, जो रति और अरति को सहन करता है, जो अनुकूल-प्रतिकूल परिषहों के कारण संयम में कठिनता का अनुभव नहीं करता है, जो श्रसंयम रूप महानिद्रा के चले जाने से सदा जागृत है और जिसे क्रोध अथवा मान के कारण किसी पर द्वेप अथवा किसी के साथ वैर-विरोध नहीं है ऐसा वीर और धीर साधक ही सभी दुखों से मुक्त होकर निर्वाण का शाश्वत सुख प्राप्त करता है। समभावी आत्मा ही मोक्ष के सुख का अनुभव कर सकती है इसमें सन्देह नहीं है । श्राचार्य शिष्य को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि हे वीर ! यदि तुम शब्दादि विषयों पर समवृत्ति रखोगे तो अपने आपको तथा दूसरों को भी दुख रूपी समुद्र से पार कर सकोगे । संसार के समस्त दुखों का निरन्वय विनाश करके ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक निराबाध सुख को प्राप्त कर सकोगे । यह भाव जागरण का सुखमय परिणाम है । जरामच्चुवसोवणीए नरे सययं मूढे धम्मं नाभिजाइ । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy