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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तृतीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ] । २०७ हैं। भावशस्त्रों का कारण अज्ञान है और अज्ञान के कारण भावशस्त्र हैं इस प्रकार परस्पर कार्य-कारण भाव समझना चाहिए । जो ज्ञानी-जन इन शस्त्रों के संसर्ग से अलग रहते हैं वे ही सच्चे ज्ञानी और मुनि हैं। - जस्सिमे सदा य रूवा य रसा य गंधा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति से श्रायवं, नाणवं, वेयवं, धम्मवं बंभवं, पन्नाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणीत्ति बुचे, धम्मविऊ, उज्जू, पावट्टसोए संगमभिजाणइ, सीउसिणचाई से निग्गंथे, अरहरइसहे, फरुसयं नो वेएइ जागरवेरोवरए वीरे एवं दुक्खा पमुक्खसि । संस्कृतच्छाया–यस्येमे शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शा भाभिसमन्वागता भवन्ति स आत्मवित्, ज्ञानवित्, वेदवित्, धर्मवित्, ब्रह्मवित् प्रज्ञानैः परिजानाति लोकं मुनिरिति वाच्यः, धर्मवित्, ऋजुः आवर्तस्रोतसोः संगमभिजानाति, शीतोष्णत्यागी स नियन्थः रत्यरतिसहः परुषतां नो वेत्ति, जागरवैरोपरतः वारः एवं ( त्वं ) दुःखात् प्रमाक्षयसि । शब्दार्थ-जस्सिमे जिस पुरुष को ये । सद्दा य शब्द । रूवा य रूप । गंधा य= गंध । रसा य=रस । फासा य और स्पर्श । अभिसमन्नागया भलीभांति ज्ञात । भवंति होते हैं। से आयवं वही आत्म-स्वरूप को जानने वाला है। णाणवं ज्ञानवान् । वेयवं शास्त्रों का वेत्ता । धम्मवं-धर्म को जानने वाला । बंभवं ब्रह्म को जानने वाला है। पन्नाणेहिं विज्ञान बल के द्वारा। लोयं लोक को । परियाणइ-जान लेता है । मुणीत्ति वुच्चे वही मुनि कहा जाता है । धम्मविऊ% धर्म को जानने वाला । उज्जू सरल मुनि । पावट्टसोए संसार-चक्र का और विषयाभिलाषा का । संगमभिजाणइ-सम्बन्ध जानता है । सीउसिणच्चाई-सुख और दुख की आशा नहीं रखता हुआ । से निग्गंथे वह अपरिग्रही मुनि । अरइरइसहे अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गों को-परीषहों को सहन करता हुआ । फरुसयं संयम में कठिनता का । नो वेएइ अनुभव नहीं करता है । जागरबेरोवरए ऐसा मुनि सदा जागरुक रहता है और वैर-विरोध से दूर रहता है। वीरे हे वीर ! एवं दुक्खा इस प्रकार तुम दुखों से । पमुक्खसि-मुक्त बनोगे। भावार्थ-जो साधक शब्द, रूप, रस, गंध, और स्पर्श के सुन्दर या खरच, अनुकूल या प्रतिकूल मनोज्ञ या अमनोज्ञ, प्राप्त होने पर भी दोनों अवस्थाओं में समान भाव रख सकता है वही साधक चैतन्य (आत्म-रूप) ज्ञान, वेद ( शास्त्रीय बोध ) धर्म तथा ब्रह्म (निर्विकल्प सुख) का ज्ञाता है । ऐसा ही साधक अपने विज्ञानबल से लोक के स्वरूप को जान सकता है और ऐसा ही साधक मुनि कहला सकता है । इस प्रकार धर्म के जानने वाले सरल मुनि संसार-चक्र तथा विषयामिलाषा (आसक्ति) का रागादि के साथ क्या सम्बन्ध है For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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