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किती अभ्ययन षष्ठ उद्देशक ]
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होता है । तम्हा - इसलिए। वीरे वीर साधक । न रज्जइ = किसी पदार्थ पर रागवृत्ति उत्पन्न नहीं होने देता है ।
भावार्थ - पराक्रमी साधक संयम में उत्पन्न हुई अरुचि की उपेक्षा नहीं करता है और बाह्य पदार्थों में होने वाली रति को नहीं सहन कर सकता है अर्थात् वीर साधु संयम में रति और विषयों मैं रत नहीं करता है | सच्चा साधु रति या अरति उत्पन्न होने पर भी डांवाडोल नहीं होता है; वह शान्त रहता है और इसीलिए वह किसी भी पदार्थ पर रागवृत्ति उत्पन्न नहीं होने देता है ।
विवेचन - साधना - मार्ग के प्रत्येक पथिक में सांसारिक वृत्ति के गाढ़ अथवा अल्प संस्कार हुआ करते हैं इसलिये किसी मोहक वस्तु के निमित्त को पाकर वे गूढ़ रहे हुए संस्कार जागृत हो जाते हैं। जिनकी वजह से संयम के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है और प्रलोभन उत्पन्न करने वाले बाह्य पदार्थों पर आसक्ति हो जाती है। ऐसे प्रसंग पर जो वीर साधु होते हैं वे उस उत्पन्न हुई अरुचि को सहन करके उपेक्षा नहीं करते हैं तथा विषयों के प्रति पैदा हुई रुचि को भी नहीं सहते हैं । ज्योंही यह प्रतीत होने लगे कि चित्तवृत्तियों का वेग निम्न दिशा में गति कर रहा है त्योंही साधक को सावधान हो जाने की आवश्यकता है । निम्नदिशा में ढलती हुई चित्तवृत्ति को देखकर भी यदि उसकी उपेक्षा की जाय तो न मालूम वह पतन कहाँ जाकर रुकेगा । दोषों की तरफ झुकती हुई वृत्ति की प्रतिक्रिया यदि समय पर ही न कर दी जाय तो उसके इतने बढ़ने की सम्भावना रहती है कि फिर उस पर काबू रखना अत्यन्त कठिन हो जाता है। अगर
के के प्रति दुर्लक्ष्य कर उपेक्षा की जाती है तो उसका परिणाम यह आता है कि उस बढ़ती हुई की ज्वाला पर काबू करना कठिन हो जाता है और वह भीषण अग्नि अत्यन्त संहारक हो जाती है । जिस प्रकार वट वृक्ष का बीज अत्यन्त छोटा होता है परन्तु बढ़ते २ वह विशाल रूप धारण कर लेता है । ठीक इसी तरह प्रारम्भ में दोष बहुत छोटे मालूम होते हैं लेकिन उनकी उपेक्षा की जाती है तो बड़े भयंकर सिद्ध होते हैं ।
ज्योंही साधक को यह ज्ञात हो जाय कि उसकी वृत्तियाँ निम्नगामिनी होने लगी हैं त्योंही उसे सावधान होकर समता-योग का आश्रय लेना चाहिए। ऐसी डाँवाडोल स्थिति में यदि साधक किसी एक वृत्ति की तरफ झुक जाता है तो परिणाम यह होता है कि फिर उस वृत्ति पर काबू नहीं किया जा सकता अपितु वह दूषित वृत्ति प्रबल बनकर साधक पर काबू कर लेती है। समय पर चूके हुए व्यक्ति का परिश्रम बहुत लम्बे काल के लिए व्यर्थ होता है। परीक्षा में चूके हुए को पुनः सालभर तक उसी कक्षा में रहना पड़ता है । उसी प्रकार रति- अरति उत्पन्न होने के समय अगर साधक चूक जाता है तो उसकी सारी साधना पर पानी फिर जाता है और पुनः उस मार्ग पर आने के लिए शतगुण परिश्रम करने पर भी कई बार निष्फल होना पड़ता है इसलिए ऐसे प्रसंग पर प्रमादी बनना अत्यन्त भयंकर है । ऐसे प्रसंग पर जो उस उगती हुई दूषित वृत्ति पर काबू कर लेता है वही सचमुच वीर है। सच्चा वीर प्रतिकूल और अनिष्ट संयोगों में भी कभी अपने साध्य से पतित नहीं होता है। सच्चा वीर रति-रति को उत्पन्न ही नहीं होने देता । कदाचित् निमित्तों की प्रबलता से रति-अरति उत्पन्न भी हो जाय तो वह अपने हृदय पर उसका असर नहीं होने देता । रति-रति में वह कदापि खेद का अनुभव नहीं करता है और विषयों में या प्रलोभनों में लुब्ध बनकर किसी पदार्थ पर आसक्त नही होता है अपितु ऐसे प्रसंग पर सावधान और
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