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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १८४1 www.kobatirth.org के परिभ्रमण का मूल हेतु समझ कर त्याग करता है वही मोक्ष का अधिकारी हो सकता है । "दिट्ठ भए” ऐसा पद मानने पर अर्थ होता है - सात प्रकार के भय को जानने वाला । श्रर्थात् परिग्रह के कारण साक्षात् या परम्परा से सात प्रकार का भय रहता हैं । जब परिग्रह का त्याग कर दिया जाता है तो भय नहीं रहता है इसलिए वह दृष्टभत्र हो जाता है। इस प्रकार परिग्रह को ज्ञ-परिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यानपरिज्ञा द्वारा छोड़ना चाहिए । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ आचाराङ्ग-सूत्रम् बुद्धिमान् साधु का यह कर्त्तव्य है कि वह लोक के स्वरूप को समझ कर लोक-संज्ञाओं का त्याग करे । विदितवेद्य साधु यह विचारे कि परिग्रह के कारण प्राणीगण लोक में एकेन्द्रियादि योनियों में अनेक प्रकार के दुखों को सहन करते हैं । अतः उसका त्याग ही श्रेयस्कर है। साथ ही साथ लोकसंज्ञाएँ भी छोड़नी चाहिए । प्रज्ञापना सूत्र में दस प्रकार की संज्ञाएँ कही गई हैं: दस सण्णाओ पण्णत्ताओ तंजहा - श्राहारसरणा, भयसण्णा, मेहुणसराणा, परिग्गहसराणा, कोहसण्णा, माणसण्णा, मायासण्णा, लोभसरणा, ओहसण्णा लोगसण्णत्ति । अर्थात् - आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, संज्ञा और लोकसंज्ञा ये दस प्रकार की संज्ञाएँ हैं । इन दस प्रकार की संज्ञाओं का भी त्याग करना चाहिए । अथवा लोकसंज्ञा में समाविष्ट कीर्ति, मोह, लालसा, वासना और अहंकारादि का त्याग करना चाहिए । धर्मिष्ट पुरुषों के धर्म कार्य भी अगर कीर्ति - मोह से या लोक- वासना से किए गये हों तो वे निष्फल होते हैं । विकास के मार्ग में आगे बढ़े हुए साधकों का भी इस प्रकार के लोकसंज्ञा के धानुकरण से गहन पतन होने की सम्भावना रहती है। कई आगे बढ़े हुए साधक भी कीर्ति और यश की कामना के कारण पतनोन्मुख होते हुए देखे जाते हैं। कीर्ति-लोभ का संवरण करना साधारण काम नहीं है तो भी सच्चे साधक के लिए तो इस प्रकार की लोक-संज्ञाओं का त्याग श्रावश्यक हो जाता है । सच्चे आत्मार्थी और मुमुक्षु प्राणी को कीर्ति-लोभ से क्या प्रयोजन ? इस प्रकार की लोकसंज्ञाओं के त्याग के लिए प्रबल वैराग्य की आवश्यकता है। जबतक वैराग्य का वेग प्रबल रहता है वहाँ तक ममत्व-भावना या कीर्ति भावना जागृत ही नहीं हो सकती । परन्तु जहाँ वैराग्य का वेग कम हुआ वहाँशीघ्र उक्त भावनाएँ जागृत हो जाती हैं और आगे बढ़े हुए साधक को पीछे धकेल देती हैं और उसका पतन कर देती हैं । अतः अपने वैराग्य को सदा दृढ़ रखकर ममत्व-भावना और लोक-संज्ञा का त्याग कर संयम के मार्ग में विवेक पूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए । इसीसे साध्य की सिद्धि हो सकती है। न रज्जइ ॥ नारदं सहई वीरे, वीरे न सहई रतिं । जम्हा श्रविमणे वीरे, तम्हा वीरे संस्कृतच्छाया - नारतिं सहते वीरो, वीरो न सहते रतिं । यस्मादविमना वीर स्तस्माद्वीरो न रज्यति शब्दार्थ — वीरे पराक्रमी मुनि । श्ररई संयम में उत्पन्न अरूचि की । न सहइ उपेक्षा नहीं करता है । वीरे वीर साधु । रतिं = बाह्य प्रलोभनों में होती हुई रूचि की । न सहइ = उपेक्षा नहीं करता है | जम्हा= क्योंकि । वीरे= वीर साधु । श्रविमणे = अन्यमनस्क नहीं होता है - शान्त I 1 1 For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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