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द्वितीय अध्ययन षष्ट उद्देशक ]
[ १८३ . में भी उसके मन में यह लालसा है कि यदि मुझे पदार्थ मिल जाँय तो मैं उनका उपभोग करूँ। इसी ममत्व भावना के कारण वह त्यागी नहीं माना जाता है । इसके विपरीत भरत चक्रवर्ती के परिग्रह का कोई पार न था तो भी ममत्व भावना के अभाव से वे त्यागी माने गए हैं और उन्होंने द्रव्यलिंग के अभाव में भी भाव संयम के कारण आरिसा भवन में ही केवलज्ञान प्राप्त किया था। दशवकालिक सूत्र में त्यागी की व्याख्या बताते हुए कहा गया है:
वत्थगंधमलंकार इश्रिो सयणाण य. अच्छंदा जे न भुजन्ति न स चाई त्ति वुचइ ।। जे य इद्वे कंते भोए लद्धे वि पिट्ठीकुव्वइ ।
साहीणे चयइ भोए से हु चाई त्ति वुच्चइ । उक्त दो गाथाओं में त्यागी की सच्ची परिभाषा दी गयी है। जो व्यक्ति वस्त्र, गन्ध, आभूषण, स्त्रियाँ, शयनासन आदि बाह्य पदार्थों को पराधीन होने से नहीं भोगते हैं वे त्यागी नहीं कहे जाते हैं परन्तु इष्ट, कान्त और मनोज्ञ भोगों को प्राप्त करके भी जो उनसे विमुख होते हैं और स्वेच्छा पूर्वक उनका त्याग करते हैं वे ही त्यागी माने गए हैं। इस तरह विधिनिषेध रूप से त्यागी की स्पष्ट परिभाषा बताई है। उपर्युक्त गाथाओं का यह मतलब नहीं है कि जो साधन-सम्पन्न हैं वे ही साधनों का त्याग करने पर त्यागी कहला सकते हैं और साधनहीन त्यागी नहीं हो सकते । उक्त गाथाओं का तात्पर्य यह है कि जिसकी ममत्व-बुद्धि चली गयी हो वही त्यागी है। साधनहीन होने पर भी यदि चित्त में साधनों को प्राप्त करने की कामना न हो, चित्त में लालसा न हो तो वह त्यागी हो सकता है। सारांश यह है कि ममत्व-बुद्धि का त्याग करने पर ही ममता का त्याग हो सकता है । चित्तवृत्ति जहाँ तक ममत्व-भावना से जकड़ी हुई होती है वहाँ तक पदार्थों का त्याग कर देने पर भी ममता-आसक्ति पैदा होने की है । वस्तुतः पदार्थ आसक्ति के जनक नहीं परन्तु उन पदार्थों में की हुई ममत्व-बुद्धि आसक्ति का कारण है। इससे बाह्य पदार्थों से विकास रुक जाता है यह बात कोई महत्व की नहीं है । विकास को रोकने वाले पदार्थ नहीं परन्तु पदार्थ के प्रति की गई हमारी ममत्व-भावना ही है । इसका यह अर्थ नहीं है कि बाह्य पदार्थों के त्याग की आवश्यकता नहीं है । बाह्य पदार्थों का त्याग, ममत्व-बुद्धि को कम करने के लिए प्राथमिक रूप से उपयोगी है। बाह्य पदार्थों के त्याग का उद्देश्य भी ममत्व-बुद्धि को कम करने का ही है । पदार्थों पर से आसक्ति कम करने के लिए बाह्य पदार्थों का त्याग एक पूर्व साधन है। धीरे धीरे आन्तरिक चित्तवृत्ति पर रही हुई ममत्व-वासना के त्याग से ही वास्तविक उद्देश्य पूरा होता है । तात्पर्य यह निकलता है कि ममत्व-बुद्धि का त्याग ममता के त्याग के लिए आवश्यक है।
सूत्रकार ने ममत्व-बुद्धि के त्याग से भाव परिग्रह और ममता के त्याग से द्रव्य परिग्रह के त्याग का सूचन किया है। परिग्रह के परिणाम को जानने वाले साधक के लिए भाव और द्रव्य परिग्रह का त्याग श्रेयस्कर है।
___ पदार्थ के सम्बन्धमात्र से चित्त कलुषित नहीं हो जाता। जिस प्रकार मुनि नगरों में रहते हैं या भूमि पर बैठते हैं इस सम्बन्धमात्र से परिग्रह नहीं हो जाता परन्तु ममत्व-भावना से कालुध्य होता है अतएव जो ममत्व-भावना का त्याग करता है वह ममत्व का त्याग करता है और जिसके ममत्व नहीं है वही मुनि मोक्षमार्ग के स्वरूप को जानने वाला है । जो ममत्व को मोक्षमार्ग में अन्तरायरूप और संसार
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