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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir लोक-विजय नाम द्वितीय अध्ययन -षष्ठ उद्देशक(ममता-परित्याग) . गत पञ्चम उद्देशक में संयम-देह-यात्रा के लिए लोक-निश्रा का विधान किया गया है। अर्थात् संयमी पुरुषों को अपने संयमित जीवन के निर्वाह के लिए गृहस्थ-जनों से भिक्षा ग्रहण करने का कहा गया है। गृहस्थों से भिक्षा ग्रहण करने का कार्य उनके संसर्ग के बिना नहीं होता । तात्पर्य यह है कि जीवननिर्वाह के लिए त्यागियों को भी गृहस्थों के संसर्ग में आना पड़ता है । इस प्रकार संसर्ग रहने के कारण त्यागियों को भी ममता हो जाने की सम्भावना रहती है । एक से दूसरी बार भी जो प्राणी किसी के सम्पर्क में आ जाता है तो उसके प्रति भी आंशिक ममता हो पाती है। सामान्य पुरुषों की बात छोड़कर भी हम देखते हैं कि अच्छे २ त्यागी व्यक्ति भी ऐसी ममता से बँध जाते हैं। अधिक संसर्ग से ममता होती है और ममता संसार की जननी है। इसलिए ममता का त्याग करने का इस उद्देशक में उपदेश दिया गया है। ___ संसर्ग में आये बिना तो काम चल नहीं सकता। जो एकान्त निवृत्ति का अवलम्बन लेकर वनों में, गिरिगहरों में और एकान्त शून्य स्थानों में ही रहते हैं और जो कभी नगरादि वसतियों में नहीं रहते उनकी बात को छोड़कर जब विचार किया जाता है तो यह मालूम होता है कि त्यागियों को भी स्व-पर कार्य के साधन के लिए वसतियों का अवलम्बन लेना पड़ता है। जो एकान्त आत्मार्थी ही हैं वे ही वनादि में रहते हैं । जो आत्मार्थी होने के साथ ही जनकल्याण की भावना रखते हैं उनके लिए वसतियाँ ही कार्यक्षेत्र बनती हैं। शासन-नायक तीर्थक्कर तीर्थ की प्रवृत्ति करते हैं । उसका भी उद्देश्य प्रात्म-साधना के साथ जनकल्याण की साधना का होता है और इसी उद्देश्य के अनुसार जनकल्याण और समाजकल्याण की बड़ी भारी जिम्मेदारी साधु-संस्था पर रही हुई है। साधुपद की व्युत्पत्ति करते हुए टीकाकार लिखते हैं साधयति स्वपरकार्याणीति साधुः।। अर्थात्-जो आत्म-साधना के साथ लोकोपकार के साधन का कार्य करता है वह साधु है। तात्पर्य इतना है कि चाहे अपनी जीवन-वृत्ति के लिए चाहे लोकोपकार के लिए साधु को लोक के संसर्ग में आना पड़ता है। संसर्ग में आने से ममता हो जाने की सम्भावना रहती है इसलिए इस उद्देशक में ममता के निवारण का उपदेश दिया जाता है। लोक-संसर्ग सर्वथा नहीं त्यागा जा सकता है इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि संसर्ग होते हुए भी ममता न की जाय । वस्तुतः संसर्ग बन्धन नहीं है परन्तु ममता बन्धन है। साधक का यह कर्तव्य है कि वह संसर्ग करता हुआ भी उससे लिप्त न हो। कमल और कीचड़ का संग है तदपि कमल कीचड़ से अलिप्त रहता है। उसी तरह साधु को चाहिए कि अपनी वृत्तियों को इतनी रूक्ष रखे कि वे ममता से लिप्त न बनें। ममता का जन्म संग से नहीं परन्तु ममत्वबुद्धि से होता है अतः ममत्व-बुद्धि का त्याग करना चाहिए: For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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