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द्वितीय अध्ययन षष्ठ उद्देशक ]
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'कारवेज्जा |
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सेतं संबुज्झमाणे श्रायाणिीयं समुट्ठाय तम्हा पावकम्मं नेव कुज्जा न
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संस्कृतच्छाया- -- सः तत् संबुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय तस्मात् पापकर्म्म नैव कुर्यात् न कारयेत् ।
शब्दार्थ — से वह साधक । तं पूर्वोक्त वस्तु-स्वरूप को । संबुज्झमाणे—जानकर | श्रयाखीयं = श्रदेय - ज्ञानदर्शन चारित्रादि को । समुट्ठाय सम्यग् जानकर ग्रहण करता है । तम्हा= इसलिए | पावकर्म्म = पावकर्म । नेव कुजा न करे । न कारवेज्जा = न करावे |
भावार्थ - हे प्रिय शिष्य जम्बू ! पूर्वोक्त वस्तु स्वरूप को समझ कर श्रदेय - ज्ञान, दर्शन और चारित्रमय संयम में प्रयत्नशील रहने वाले साधक का यह कर्तव्य है कि वह स्वयं पापकर्म न करे और न दूसरों से करावे ( पाप करते हुए अन्य को अनुमोदन न दे ) क्योंकि उसने सर्व सावद्य आरम्भों से निवृत्ति की प्रतिज्ञा ली है ।
विवेचन- इस सूत्र का इसके पूर्ववर्ती पञ्चम उद्देशक के अन्तिम सूत्र के साथ सम्बन्ध है । उस सूत्र में यह कहा गया है कि जो सच्चागृहत्यागी श्रमरण है उसे प्राणी का उपघात करने वाली चिकित्सा करना या वैसा उपदेश देना योग्य नहीं है इस बात को ज्ञ परिज्ञा द्वारा जानता हुआ और प्रत्याख्यानपरिज्ञा द्वारा त्याग करता हुआ जो सच्चे ज्ञान दर्शन और चारित्रमय संयम के अभिमुख होता है वह यह प्रतिज्ञा करता है कि मुझे किसी भी प्रकार का सावद्य कार्य नहीं करना है । इस प्रकार प्रतिज्ञा के पर्वत पर चढ़कर उसे चाहिए कि फिर किसी तरह वहाँ से पतित न हो। ऐसी प्रतिज्ञा कर लेने पर उसका यह वर्त्तव्य हो जाता है कि वह अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण रूप से पाले और स्वयं किसी प्रकार का पापकर्मन करे और अन्य से भी पापकर्म न करावे तथा करते हुए अन्य को अनुमोदन न दे ।
यहाँ यह शंका की जा सकती है कि सूत्रकार ने सूत्र में करने और कराने का ही निषेध किया है। फिर अनुमोदन का निषेध कैसे ग्रहण किया जाय ? इसका समाधान यह है कि सूत्र में दिये हुए 'एव' शब्द से अनुमोदन करने का भी निषेध समझना चाहिए। इस तरह तीन करण और तीन योग से पापकर्मों का त्याग करना चाहिए ।
वैसे तो असंख्य तरह के पापकर्म होते हैं तदपि वर्गीकरण के सिद्धान्त के अनुसार उनके वर्ग (भेद) बना दिये जाते हैं । भिन्न भिन्न विवक्षाओं से पृथक् २ भेद हो सकते हैं । सामान्य रूप से अठारह पापस्थान प्रसिद्ध हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं: - ( प्राणातिपात ( २ ) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) मैथुन (५) परिग्रह (६) क्रोध ( ७ ) मान (८) माया ( ६ ) लोभ (१०) राग ( ११ ) द्वेष ( १२ ) कलह ( १३ ) अभ्याख्यान - कलंक देना ( १४ ) पैशुन्य (१५) परपरिवाद ( १६ ) रति-अरति ( १७ ) मायामृषावाद और (१८) मिध्यादर्शन शल्य । उपर्युक्त अठारह पापस्थानों का तीन करण तीन योग से त्याग करना साधु का धर्म है ।
सिया तत्थ एगयरं विप्परामुस, सुन्नयरम्मि कप्पर ।
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