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द्वितीय अध्ययन पंचमोद्देशक ]
[ १७५
छित्ता छेदन करने वाले । भेत्ता-शूलादि से भेदने वाले । लुम्पइत्ता लूटने वाले । विलुम्पइत्ता= खसोटने वाले । उद्दवइत्ता आणों से रहित करने वाले होते हैं । जस्स वि=जिस किसी को । णं करइ वे उपदेश करते हैं उसको भी क्रिया लगती है । अलं बालस्स संगेणं ऐसे अज्ञानियों की संगति नहीं करनी चाहिए । जो वा से कारइ बाले जो अज्ञानी ऐसी चिकित्सा कराते हैं उनकी भी संगति न करे । न एवं अणगारस्स जायइ-जो सच्चे गृहत्यागी साधु हैं उनको ऐसा उपदेश और चिकित्सा नहीं कल्पती है।
भावार्थ-परमार्थ नहीं समझते हुए भी पाण्डित्य का अभिमान करने वाले कितने ही वेशधारी श्रमण कामविकार को शमन करने के उपदेशक होकर वृत्ति करते हैं और हम कुछ अपूर्व कार्य करेंगे ऐसा अभिमान रखकर फिरते हैं पर एसा नहीं करके वे उल्टे छोटे मोटे जीवों को मारने वाले, छेदने वाले, भेदने वाले, लूटने वाले, खसोटने वाले और प्राणों से रहित करने वाले होते हैं। ऐसे अज्ञानी जिसे उपदेश देते हैं, जिसके संसर्ग में आते हैं वे भी कर्मबन्धन के भागी हैं और वे स्वयं तो हैं ही। इसलिए ऐसे अज्ञानियों की संगति नहीं करनी चाहिए । इतना ही नहीं वरन् जो इनकी संगति करते हैं उनकी भी संगति नहीं करनी चाहिए । जो गृहवास को त्यागकर त्यागी श्रमण होते हैं उनको तो ऐसा हिंसक उपदेश या चिकित्सा करना योग्य नहीं है।
विवेचन-इस सूत्र में यह बताया गया है कि हिंसक चिकित्सा द्वारा जो काम को शमन करने का झूठा दावा करते हैं वे केवल अपना थोथा अभिमान प्रदर्शित करते हैं । प्रथम तो चिकित्सा द्वारा कामनिग्रह सम्भव ही नहीं तदपि कदाचित् सम्भव मान भी लिया जाय तो भी यह उपाय अनेक जीवों को प्राण रहित करने वाला, उन्हें त्रास पहुँचाने वाला और परपीड़ाकारी है अतः यह अहिंसा के पुजारियों के लिए कदापि ग्राह्य नहीं हो सकता । सच्चे संत को काम-शमन और अहिंसा दोनों का चुस्त रीति से पालन करना पड़ता है अतः यह गलत उपाय है । वे अपनी विद्वत्ता का मिथ्या अभिमान करने वाले और अद्भुत कार्य करने का दावा करने वाले व्यक्ति स्वयं पाप का भार उठाते हैं और बकवाद करके वचन-जाल द्वारा अन्य सरल प्राणियों को भी ऐसा उपदेश करके पाप के भागी बनाते हैं। स्वयं भी डूबते हैं और दूसरों को भी डुबाते हैं । जो भोले प्राणी ऐसे अज्ञानियों का उपदेश सुनते हैं या उनका संसर्ग रखते हैं वे भी कर्मबन्धन में बंधते हैं क्योंकि संसर्ग का असर आये बिना नहीं रहता है । कहा है
संसर्गजाः दोषगुणाः भवन्ति । अर्थात्-संसर्ग से गुण और दोष उत्पन्न होते हैं। ऐसे अज्ञानियों के संसर्ग से दोष उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकते अतएव उनके संसर्ग का त्याग करने का कहा गया है। जो अज्ञानियों का संसर्ग करते हैं उनका भी संसर्ग वर्जनीय है क्योंकि दोषों का संसर्ग आखिर दोष पैदा करता है । सच्चे गृहत्यागीश्रमण कदापि ऐसी हिंसक चिकित्सा का उपदेश तक नहीं देते। वे कृत्रिम उपायों का अवलम्बन न लेकर अपने त्यागबल द्वारा काम का शमन करते हैं और इस तरह सच्चा सुख प्राप्त करते हैं।
-उपसंहारशुद्धवृत्ति रखना शुद्ध जीवन का मूल कारण है । कामभोगों से विरक्त शुद्ध जीवन ही सच्चे सुख का निदान है।
इति पञ्चमोद्देशकः
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