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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७४ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् कैसी मोह - विडम्बना ! ! इस प्रकार भोगाभिलाषी और अपने आपको अमर मानने वाले प्राणी अन्त में घोर शारीरिक व मानसिक पीड़ाएँ प्राप्त करते हैं । कामभोगों का परिणाम किंपाक फल के समान अति दारुण और विकट होता है । जो भोगों के दारुण स्वरूप से अपरिचित और अज्ञान हैं ऐसे अविवेकी प्राणी भोगों के प्राप्त नहीं होने से अथवा प्राप्त भोगों के नष्ट हो जाने से आकांक्षा और शोक - जन्य दुखों का अनुभव करते हैं । इसलिए परम कारुणिक, सर्व - जीव- हितैषी, आप्त-पुरुष डिंडिम नाद के साथ उद्घोषणा करते हैं कि हे प्राणियो ! अगर दुखों मुक्त होना चाहते हो और सुख के अखण्ड साम्राज्य में शान्ति का अनुभव करना चाहते हो तो कामभोगों का परित्याग करो। इस उपदेश को धारण करोगे तो तुम जिस सुख को प्राप्त करने के लिए परेशान हो रहे हो वह स्वयं तुम्हें प्राप्त हो जायगा । सुख का अथाह सागर तुम्हारे हृदय में उमड़ पड़ेगा । सुख का अमूल्य खजाना तुम्हारे चरणों में स्वयं उपस्थित हो जायगा । आवश्यकता है मात्र कामभोगों के त्याग की । इस त्यागमार्ग में ही सुख का अक्षय खजाना अन्तर्हित है । त्यागमार्ग जैनदर्शन का राजमार्ग है । यद्यपि शास्त्रकार ने पहिले यह प्रतिपादन किया है कि कोई भी क्रिया एकान्त रूप से आचरणीय या निषिद्ध नहीं है और मुख्यतः क्रिया में धर्म या अधर्म नहीं है परन्तु वृत्ति में है । क्रिया के पीछे वृत्ति काम करती है वही शुभाशुभ वृत्ति या तो विकास करने वाली होती है या अवरोध करने वाली । अतएव वृत्ति-लालसा को रोक कर अनासक्त भाव से क्रिया करनी चाहिए | परन्तु विचारणीय बात यह है कि क्रिया के साधन और शक्ति होने पर भी क्रिया से वासना को निकाल देना और विरक्त भाव से क्रिया करना यह विरले योगियों का ही काम है । इसलिए उत्सर्ग मार्ग में त्याग-मार्ग की सुन्दर योजना बताई गयी है । यद्यपि त्याग भी तभी फलित समझा जाता है। जब क्रमशः शुभ क्रियाएँ करते २ आसक्ति का नाश हो जाता है । जिस त्याग में से अनासक्ति प्रकट हो वही सच्चा त्याग है । इस दृष्टि से त्याग और निरासक्ति के उद्देश्य भिन्न नहीं परन्तु एक है । मात्र इसमें भूमि का भेद है । क्रिया के त्याग से वृत्ति के त्याग का कार्य सरल बन जाता है। अर्थात् सरल भाषा कहें तो त्याग करने से धीरे २ आसक्ति अपने आप मिट जाती है। वस्तुतः अनासक्ति का क्षेत्र ऊँचा है । साधन रहते हुए भी साधनों से लिप्त न होना, एक महान कार्य है । हरएक के लिए यहाँ तक पहुँचना आसान नहीं । अतः सर्व - साधारण के लिए उस अवस्था तक पहुँचने के हेतु क्रमिक श्रेणियों का विधान किया गया है। इस पर से त्याग और क्रिया-काण्डों का महत्त्व प्रत्येक प्राणी को समझ लेना चाहिए । 1 1 1 तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हंता, छत्ता, भित्ता, लंपइत्ता, विलपत्ता, उद्दवइत्ता, अकडं करिस्सामि त्ति मन्नमाणे जस्स वि. य णं करेइ, अलं बालस्स संगेणं, जे वा से कारह बाले, न एवं अणगारस्स जायइत्ति बेमि । संस्कृतच्छाया - चिकित्सा पण्डितः प्रवदन् स हन्ता, छेत्ता, भेत्ता, लुम्पयिता विलुम्पयिता श्रपद्रायता, कृतं करिष्यामीति मन्यमानः यस्यापि च करोति, अलं बालस्य संगेन, यो वा तत् कारयति बालः, नैवमनगारस्य जायते इति ब्रवीमि । शब्दार्थ—पंडिए=पाण्डित्य का अभिमान करने वाले । तेइच्छं-कामविकार के शमन की चिकित्सा का । पवयमाणे - बकवाद करते हुए उपदेशक बनते हैं । अकडं नहीं किया हुआ । करिस्सामित्ति = करूँगा ऐसा । मन्नमाणे = मानते हुए । से= वे । हंता = जीवों को मारने वाले । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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