SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन पंचमोद्देशक ] [ १७३ - हैं। कामीपुरुष शेखचिल्ली के समान कल्पनाओं के जंजाल में फंसा हुआ दुख प्राप्त करता है । इस प्रसंग में भिखारी और दधिघटिका का दृष्टान्त उपयुक्त है । वह इस प्रकार है: किसी भिखारी को कहीं से थोड़ा दूध प्राप्त हुआ। उसका उसने दही बना लिया और सोचने कि लगा इसका घी बना कर उसे बेचकर, पैसे प्राप्त करके उनसे व्यापार करूँगा और व्यापार में हजारों रुपये पैदा करूँगा। रुपयों के बल से किसी सुन्दरी स्त्री के साथ विवाह करूँगा। उसके साथ सांसारिक सुख भोगते हुए मुझे पुत्र प्राप्त होगा और वह पुत्र जब बड़ा होगा तो मुझे अपनी माता के कहने से भोजन के लिए बुलाने के लिए आवेगा। उस समय मैं काम में लगा रहूँगा । लड़का फिर चलने को कहेगा तब उसे लात मारूँगा । इस प्रकार उसके विचार-तरंगों में ही पांव उठाते और मस्तक धुनने से दही का घड़ा नीचे गिर पड़ा और फूट गया। इससे उसके सभी तरंग नष्ट हुए । तब उसे ध्यान आया कि निष्फल हवाई किले बांधने का यह फल हुआ। न तो दही खाया और न पुण्य किया। जो था उसे भी खोया। ठीक इसी तरह संसारी प्राणी भी भावी कल्पनाओं के संसार में विचरण कर प्राप्त साधनों से भी वंचित रहते हैं और भावी काल्पनिक सुख की आशा में कष्ट सहन करते हैं । इस तरह कामी सदा चिन्तातुर रहने से शान्ति का अंश भी नहीं पा सकता है । अपनी भ्रामक बुद्धि से माने हुए सुख के साधनों को जुटाने में वह रातदिन एक करता है और माया का आचरण करता है। सूत्रकार ने 'माया' शब्द कहकर चारों ही कषायों का सूचन किया है। माया कषायों में मध्यवर्ती है अतः उसके ग्रहण से चारों कषायों का अर्थ समझ लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि आसक्त प्राणी क्रोधी, मानी, मायी और लोभी होता है। जिस प्रकार मकड़ी जाला बनाकर स्वयं उसमें फंस जाती है उसी प्रकार कामी पुरुष अपने ही हाथों से प्रपञ्च खड़ा करता है और उसमें फंसकर किंकर्तव्यविमूढ़ बनता है और मूढ़तावश ऐसे २ अशुभ कार्य करता है और इस प्रकार लोभ का सेवन करता है जिसके द्वारा अपनी आत्मा के साथ वैर बढ़ाता है और अनेक दुखों को निमंत्रण देता है। धन-संग्रह में माने हुए मिथ्या सुख को प्राप्त करने के पीछे प्राणी इतना पागल हो जाता है कि न वह शान्ति के साथ भोजन कर सकता है, न पानी पी सकता है और न श्राराम की नींद ले सकता है । इस विषय में मम्मण सेठ का दृष्टान्त पहिले कहा जा चुका है। इस तरह अपने ही द्वारा रचे हुए प्रपञ्चों में फंसकर प्राणी ऐसा लोभ करता है और अन्य ऐसे पाप काम करता है जिनकी वजह से जन्म जन्मान्तरों तक दुखों का भागी बनता है और इस तरह श्रात्मा के साथ वैर करता है। आह ! काम की कैसी विचित्र स्थिति है ! कहा है: दुःखातः सेवते कामान् सेवितास्ते च दुःखदा । यदि ते न प्रियं दुःखं प्रसङ्गस्तेषु न क्षमः ॥ अर्थात्-अज्ञानी प्राणी दुख से पीड़ित होकर और सुख की अभिलाषा से कामभोगों का सेवन करते हैं परन्तु वे ही सेविप्त कामभोग दुःख देने वाले हो जाते हैं । इसलिए अगर दुख से छुटकारा चाहते हो तो कामभोगों के संग का त्याग करना चाहिए। लेकिन इतना होते हुए भी तीव्र अभिलाषा रखने वाले प्राणी अपने आपको अजर-अमर समझ कर इस नश्वर शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए अनेक प्रकार के हिंसक उपायों का प्राश्रय लेते हैं और छह काय के जीवों का समारम्भ करके पाप का भार बढ़ाते हैं। वे प्राणी इस प्रकार के विविध प्रपञ्चों में इतने मशगूल रहते हैं कि जीवन के अन्तिम पल में भी उन प्रपञ्चों को नहीं छोड़ सकते हैं। यद्यपि जन्म के साथ मृत्यु भी अवश्यंभावी है तो भी वे महासाहसिक प्राणी अपने आपको अजर-अमर समझ कर जीवन के अन्तिम क्षण तक विषयों की आशा करते रहते हैं। कितना दुस्साहस! For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy