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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १७२ ] [ श्राचाराङ्ग-सूत्रम् कासंकासे खलु यं पुरिसे, बहुमाई, कडे मूढे पुणो तं करेइ, लोहं वेरं वड्ढेइ अप्पणो । जमिणं परिकहिज्जइ इमस्स चेव पडिवूहणयाए, अमरायह, महासड्डी मेतं पेहाए, परिन्नाय कंदति से तं जाणह जमहं बेमि । संस्कृतच्छाया - कासंकसः ( कासंकष : ) खल्वयं पुरुष: बहुमायी, कृतेन मूढः पुनस्तत् करोति । लोभं वैरं वर्द्धते आत्मनः । यदिदं परिकथ्यते अस्य चैव परिबृंहणार्थम्, श्रमरायते महाश्रद्धी, आर्तमिमम् प्रेक्ष्यापरिज्ञाय क्रन्दते, तत्तस्माज्जानीहि यदहं ब्रवीमि । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शब्दार्थ - अयं पुरिसे यह कामी पुरुष | खलु निश्चय ही । कासंकासे = यह किया, यह करूँगा इस विचार से व्याकुल रहता है । बहुमाई = बहुत माया करता है । कडे मूढे = अपने कार्य से ही मूढ बनकर | पुणो = फिर से । तं करेइ - वैसा ही काम करता है । लोहं= लोभ करता है जिससे । अप्पणो अपनी आत्मा के साथ । वरं = शत्रुता । वड् ढेइ = बढ़ाता है । जमिणं - इसी - लिए यह | परिकहिञ्जइ=कहा जाता है कि | महासड्ढी भोगों में महान इच्छा वाला पुरुष । इमस्स चेव = इस क्षण-भंगुर शरीर को । पडिवूहण्या ए = पुष्ट बनाने के लिए प्रयत्न करता हुआ । अमरायइ=मानों अजर-अमर हो ऐसा बर्ताव करता है । अट्टमेतं = ऐसे प्राणी को दुखी | पेहाए= जानकर | ( स्वयं का और काम में आसक्ति न रक्खे ) । अपरिन्नाय = सच्चे स्वरूप को नहीं जानकर | कंदति शोक करता है । से तं जाणह - इसलिए उसे धारण करो । जमहं बेमि= जो मैं कहता हूँ । भावार्थ - कामी पुरुष " यह किया और यह करूँगा " इस प्रकार के विचार से सदा चिन्ता-से व्याकुल रहता है, अत्यन्त माया का सेवन करता है और किंकर्तव्यविमूढ होकर पुनः ऐसा लोभ भी करता है जिससे अपनी आत्मा का वैरी बनकर दुखों की वृद्धि करता है । इसीलिए यह भी कहा जाता है कि काम में सक्ति रखने वाला पुरुष इस क्षणभंगुर शरीर को पुष्ट करने के लिए प्रयत्न करता है मानों यह अजर अमर हो । बुद्धिमान् ऐसे व्यक्तियों को दुखी जानकर स्वयं काय और काम में आसक्ति न रक्खे । जो मूढ प्राणी वस्तु-स्वरूप को नहीं जानते हैं वे इच्छा और शोक के अनेक दुखों को भोगते 1 हैं । इस वास्ते मैं कामपरित्याग का उपदेश देता हूँ उसे धारण करो । विवेचन - इस सूत्र में कामी पुरुष को शान्ति दुर्लभ है यह बताया गया है। कामी पुरुष संकल्पों के अधीन होकर निरन्तर चिन्ताव्यग्र रहता है । " आज अमुक काम किया" "कल अमुक करना है" "उसका ऐसा करना " वैसा करना" इत्यादि संकल्प-विकल्पों में पड़ा हुआ वह कदापि शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता | संकल्पों की परम्परा का कहीं अन्त नहीं दिखाई देता क्योंकि ज्यों ही एक संकल्प की पूर्ति होती है त्थों ही दूसरा संकल्प तैयार हो जाता है। जैसे एक लहर दूसरी लहर को उत्पन करती है वैसे ही एक संकल्प दूसरे संकल्प को जन्म देता है । यों संकल्पों की परम्परा अविच्छिन्न बनती है और इनके भूलभूलैये में पड़ा हुआ प्राणी इन्हीं में चक्कर लगाता रहता है । संकल्प आकाश के समान अनन्त For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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