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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन पंचमोद्देशक ] [ Pag मनुष्य का मन अत्यन्त चञ्चल है। वायु का वेग भी उसके तीव्र वेग के सामने मन्थर हो जाता है । श्रशान्त समुद्र में उठी हुई लहरों के समान मन में अनेक प्रकार के विचार आते हैं और विलीन हो जाते हैं। जब धर्म-श्रवण या स्वाध्याय आदि का योग होता है तब मनमें प्रशस्त विचार उदित होते हैं और कुछ ही क्षणों के पश्चात् नवीन मोह और तृष्णा से परिपूर्ण विचार उन प्रशस्त विचारों का स्थान ग्रहण कर लेते हैं। मन की इस चञ्चलता के कारण अनेकों अनर्थ उपस्थित होते हैं। अनेक संयमी अपने संयम से पतित हो जाते हैं, अनेक योगी अपने योग से भ्रष्ट हो जाते हैं और अनेक त्यागी त्यागमार्ग का त्याग कर देते हैं । इसलिए शास्त्रकार फरमाते हैं कि मन की इस चञ्चल प्रवृत्ति को रोकने के लिए प्रबल वैराग्य भावना और सतत ज्ञानादि के अध्ययन का श्राश्रय तो । पूर्वसंयोग अत्यन्त प्रबल हैं और वे जब उदित होते हैं तब सारी साधना को धूल में मिला देते हैं अतः उनका प्रबल सामना करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ की आवश्यकता है । सूत्रकार, पूर्वसंयोगों के सामने दृढतापूर्वक टिक सकने का मार्ग बताते हुए कहते हैं कि - हे त्यागवीरो ! तुम कभी मत भूलो कि तुमने विषयों को ठुकरा कर संयम का मार्ग अङ्गीकार किया है । संसार के बन्धनों का त्याग कर तुम मोक्षमार्ग के पथिक बने हो । धन को असार समझ कर अकिञ्चन बने हो । ध्यान रखो ! तुमने सांप की कंचुकी के समान विषयों का त्याग कर दिया है । जिस प्रकार सर्प छोड़ी हुई कंचुकी की इच्छा नहीं करता उसी प्रकार तुम भी त्यागे हुए विषय-भोगों को पुनः ग्रहण करने का विचार पलभर के लिए भी हृदय में उदित न होने दो । अगन्धन कुल के सर्प अग्नि में कूदकर जल मरना पसन्द करते हैं परन्तु वमन किये हुए विष को पुनः पीना नहीं चाहते। इसी प्रकार जो सच्चे जातिवान् त्यागी होते हैं वे छोड़े हुए विषयों को पुनः ग्रहण करना कदापि नहीं चाहते हैं। . जिस प्रकार वमन (# ) घृणित वस्तु समझी जाती है। कोई भी मनुष्य वमन करके उसे पुनः भोगने का विचार भी नहीं करता । भले ही कुत्ते, कौवे या अन्य नीच प्रारणी उसका भोग करें परन्तु मनुष्य तो उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखना चाहता है। इसी प्रकार संसार सम्बन्धी जिन भोगों का त्याग कर दिया है वे वमन के तुल्य हैं। कोई भी विवेकशील त्यागी पुरुष उन्हें पुनः ग्रहण करने की आकांक्षा नहीं कर सकता । अगर कोई ऐसा करता है तो वह नीच- पशुओं के तुल्य है । जिस प्रकार बालक लार को पुनः चूस लेता है परन्तु कोई भी समझदार व्यक्ति लार को फेंक देता है किन्तु सता नहीं । उसी प्रकार जो बालक के समान अविवेकी होते हैं वे ही छोड़े हुए काम भोगों की पुनः आकांक्षा करते हैं। इसके विपरीत जो विवेकसम्पन्न होते हैं वे जैसे उस तार को फेंक देते हैं वैसे ही कदाचित् कोई शुभ वृत्ति जागृत हो तो उसे मलिन समझ कर त्याग देते हैं परन्तु त्यक्त भोगों की पुनः कामना नहीं करते । सूत्रकार पुनः उपदेश करते हैं कि कामभोगों की कामना में पड़कर मोक्ष के स्रोत के समान ज्ञानादि कार्यों में उदासीन न बनो । संसार के स्रोत मिध्यात्व, कषाय आदि के प्रतिकूल बनकर उनका उल्लंघन करो और निर्वाण - स्रोत रूप सम्यग्ज्ञानादि में अनुकूलता रक्खो । इसमें प्रमाद न करो । अप्रमत्त होकर सदा संयम में जागृत रहो तो कदापि अशुभ वृत्तियां तुम पर प्रभाव नहीं डाल सकती हैं । ज्ञानादि प्रमत्त रहने पर शुभ वृत्तियों का उद्भव ही नहीं हो सकता है। जहां प्रमाद है वहीं अशुभ वृत्तियों को अवकाश है । अप्रमत्तावस्था में अशुभ वृत्तियाँ हो नहीं सकतीं अतः इन वृत्तियों के प्रति सदा जागरुक रहना चाहिए । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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