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[ ढ] चारित्र । अशुभ क्रियाओं से निवृत्त होना और शुभ क्रियाओं में प्रवृत्त होना व्यवहारचारित्र कहलाता है। कहा भी है
असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । जिन क्रियाओं से पाप-कर्म का बंध होता है, वे अशुभक्रियाएँ कहलाती हैं। ऐसी क्रियाओं को त्याग कर शुभक्रियाओं में प्रवृत्त होने से या तो पुण्यप्रकृतियों का बंध होता है अथवा संवर या निर्जरा होती है । पाँच महाव्रतों का पालन, समितियों का पालन, अनशन आदि तप वगैरह-वगैरह जो भी परसापेक्ष चारित्र है वह सब व्यवहारचारित्र है। निश्चयचारित्र में किसी भी पर-पदार्थ की अपेक्षा नहीं रहती। वह पूर्णरूप से स्वात्मावलंबी है । जब अात्मा, अपने आप से, अपने आप में रमण करता है तब निश्चयचारित्र की प्राप्ति होती है । यही निश्चयचारित्र साक्षात् मोक्ष का कारण है।
व्यवहारचारित्र साधन है और निश्चयचारित्र साध्य है। व्यवहारचारित्र की सफलता निश्चयचारित्र की प्राप्ति में है। इससे यह फलित होता है कि श्रात्मा के शुद्ध स्वरूप में रमण करने की योग्यता प्राप्त करने के लिए ही व्यवहारचारित्र अपेक्षित है। जो व्यवहारचारित्र केवल कायिक या वाचनिक क्रियाकाण्ड मात्र तक ही सीमित रह जाता है, वह आध्यात्मिक दृष्टि से निरर्थक है और यदि वह मानसिक न हुआ अथवा मन उसके विरुद्ध हुआ तो वह केवल लोक-दिखावा ही रह जाता है।
__ प्रस्तुत प्राचाराङ्गसूत्र में व्यवहारचारित्र और निश्चयचारित्र दोनों का प्रतिपादन किया गया है। साथ ही अन्तरंग-आचार को उचित प्रधानता दी गई है। आचारांगसूत्र का स्वाध्याय करने पर मन पर एक निराली ही छाप पड़ती है । सूत्र की भाषा ही उसकी प्राचीनता को प्रकट करती है । भावों की गंभीरता कहीं-कहीं तो अगाध-सी प्रतीत होती है । उसकी रचनाशैली कुछ अंशों में अन्य सूत्रों के सदृश होती हुई भी कुछ अंशों में विसदृश भी है और उसे देखकर लगता है मानों जैनसाहित्य का आद्य स्वरूप आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में ही सुरक्षित है।
आचारांग के ही समान दशवैकालिकसूत्र में भी निर्ग्रन्थ मुनियों के आचार का वर्णन है। दोनों का विषय एक होते हुए भी दोनों की भाषा, प्रतिपादनशैली, विषय-निरूपण आदि अनेक बातों में अन्तर है। प्राचारांग आन्तरिकाचार को प्रधानता देता है। आचारांग में साधु की जिस कठोर चर्या का दिग्दर्शन होता है, वह दशवैकालिक में नहीं दिखाई देती।
__ आचाराङ्गसूत्र में दो श्रुतस्कन्ध हैं, मगर दोनों में एकरूपता नहीं है। दोनों श्रुतस्कंधों को सरसरी निगाह से पढ़ने पर भी दोनों की भाषा और शैली का स्पष्ट भेद समझ में आ जाता है। अनेक विद्वानों का अभिमत है कि दूसरा श्रुतस्कंध प्रक्षिप्त है और इस अभिमत की वास्तविकता प्रमाणित करने के लिए अनेक तर्क उपस्थित किये जा सकते हैं।
प्रथमश्रुतस्कंध का सातवाँ अध्ययन आज उपलब्ध नहीं है और यह कहना कठिन है कि उसमें किस विषय का वर्णनथा । बीच का यह अध्ययन कैसे और कब विच्छिन्न हो गया, यह पता नहीं चलता। यों तो आचारांगमूत्र के, शास्त्रीय पद-प्रमाण के अनुसार अठारह हजार पद थे। अतएव अाचारांगसूत्र काफी विस्तृत होना चाहिए था, मगर आज उसका बहुत संक्षिप्त रूप ही हमारे सामने है । इस प्रकार प्रस्तुत अंग का बहुत-सा भाग उपलब्ध नहीं है और द्वितीयश्रुतस्कंध रूप भाग, जो उपलब्ध है, वह मौलिक नहीं है। पिछले पच्चीस स वर्षों में, जनसाहित्य और जैनसंघ को जिन संकटपूर्ण परिस्थितियों में
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