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होकर गुजरना पड़ा है, उन्हें यदि दृष्टि के सामने रक्खा जाय तो इस गड़-बड़ का कारण भी समझ में आ सकता है । उन परिस्थितियों में जो भी प्राचीन साहित्य सुरक्षित रह सका है, उसके लिए हम तत्कालीन श्रतधरों के आभारी हैं और वही हमारी जिज्ञासा को तृप्त करने और स्व- पर कल्याणभावना को चरितार्थ करने के लिए पर्याप्त है।
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आचारांगसूत्र के अब तक कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। पश्चिम में डॉ० हर्मन जैकोबी ने और श्रीयुत शुक्रिंग ने दो संस्करण निकाले हैं।
आचार्य जिनविजयजी द्वारा सम्पादित होकर जैन साहित्य संशोधक समिति की ओर से भी प्रथमश्रुतस्कंध प्रकाशित हुआ है । यह सब संस्करण मूलमात्र हैं। मुर्शिदाबाद और श्रागमोदय समिति भावनगर का संस्करण सटीक है। आचार्य श्री अमोलकऋषिजी म. द्वारा हिन्दी में अनूदित होकर हैदराबाद से एक संस्करण निकला है। राजकोट से भी एक संस्करण निकला है, पर वह हमारे देखने में नहीं आया | मुनि श्री संत बालजी कृत गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है । आचारांग पर श्री शीलाङ्काचार्य की टीका पहले से विद्यमान है। अभी-अभी स्थानकवासी सम्प्रदाय के विद्वान मुनि श्री घासीलालजी म० ने भी एक संस्कृत टीका लिखी है, पर अब तक वह प्रकाशित नहीं हुई ।
प्रस्तुत संस्करण प्र.व. मुनि श्री सौभाग्यमलजी महाराज की देखरेख में पण्डित बसन्तीलालजी नलवाया न्यायतीर्थ ने तैयार किया है। इसमें मूल, संस्कृतच्छाया, शब्दार्थ, भावार्थ और टीकानुसारी विस्तृत विवेचन दिया गया है। इतना सब एक साथ देने से ग्रन्थ का कलेवर बढ़ गया है, किन्तु साथ ही उसकी उपयोगिता भी बढ़ गई है। पिछले अनेक संस्करणों की अपेक्षा इस संस्करण की यह विशेषता है कि यह संस्करण सर्व भोग्य बन सका है। इस संस्करण ने आचारांग की दुरूहता को कुछ अंशों में कम कर दिया है । आशा है, साधारण योग्यता के जिज्ञासु पाठक भी इससे लाभ उठा सकेंगे। इस संस्करण को प्रस्तुत करने के लिए मुनि श्री सौभाग्यमलजी और पं. नलवाया धन्यवाद के पात्र हैं ।
आज के शान्त विश्व में जिनवाणी के अधिक से अधिक प्रचार की आवश्यकता है । इसीसे संसार में शान्ति का संचार होना संभव है । जो महानुभाव इस पवित्रतर कार्य में अपनी शक्ति का व्यय कर रहे हैं, वे जगत् का महान् उपकार कर रहे हैं।
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महावीर जयन्ती वीर सं० २४७७
संक्षेप का ध्यान रखते-रखते भी भूमिका लम्बी-सी हो गई है। कई आवश्यक विषयों पर पूरी तरह प्रकाश नहीं डाला जा सका। पाठक क्षमा करें।
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शोभाचन्द्र भारिल्ल, श्री जैन गुरुकुल, ब्यावर