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से जहाँ छह द्रव्यों का वर्णन किया गया है वहीं आध्यात्मिक दृष्टि से नौ तत्त्वों का वर्णन भी है। यह वर्णन बहुत अंशों में एकदम मौलिक और असाधारण है । आस्रव और संवर जैसे तत्त्वों का, नय-निक्षेपों का, लेश्याओं का और कर्मवर्गणाओं आदि का विवेचन तो जैनागमों को छोड़कर विश्व के किसी भी आगम में नहीं मिलता । इस प्रकार समस्त विषयों के निरूपण से समृद्ध और अनेक अपूर्व तत्वों का प्ररूपक होने पर भी जैनागम आचार की शुद्धि पर बहुत भार देता है । आचार-शुद्धि ज्ञान का मुख्य फल है । जिस ज्ञान के फलस्वरूप आचरण में उज्ज्वलता नहीं आती, वह ज्ञान निरर्थक है । 'नारणस्स फलं विरई' और 'ज्ञानं भारः क्रियां विना' यह जैनागम का विधान है। जैसे श्रौषध का ज्ञान होने पर भी जब तक उसका सेवन न किया जाय, रोग नहीं मिट सकता, उसी प्रकार सम्यक्चारित्र को अङ्गीकार किये बिना आध्यात्मिक व्याधियाँ- रागद्वेष आदि विकार दूर नहीं हो सकते। अतएव आत्मशुद्धि के लिए आत्मानुगामी प्रवृत्तियों की अनिवार्य आवश्यकता है ।
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तेरहवें गुणस्थान में ज्ञान परिपूर्ण हो जाता है, फिर भी मुक्ति प्राप्त नहीं होती, क्योंकि वहाँ चारित्र की पूर्णता नहीं है । चारित्र की पूर्णता होते ही आत्मा समस्त बन्धनों को दूर करके सिद्ध, अवस्था प्राप्त कर लेता है । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि आचरण के बिना सिद्धि प्राप्त होना संभव नहीं है।
जैनागम चार अनुयोगों में विभक्त हैं और उनमें चरणानुयोग सबसे प्रधान है। शास्त्रकारों का अभिमत है कि चरणानुयोग की रक्षा के लिए ही शेष तीन अनुयोगों की सार्थकता है । शास्त्रों में बड़े प्रभावशाली शब्दों में चारित्र की महिमा प्रकट की गई है। साथ ही जो लोग इस भ्रम में रहते हैं कि ज्ञान प्राप्त कर लेने से ही हमारा विस्तार हो जाएगा, उन्हें चेतावनी भी दी गई है। उत्तराध्ययन में कहा है:
न चित्ता ताय भासा, कुओ विजाणुसासरी ? वायावी रियमित्तणं, समासासेन्ति अप्पयं ॥
अर्थात् - संसार की नाना भाषाओं का ज्ञान आपका त्राण नहीं कर सकता । व्याकरण आदि शास्त्रों का ज्ञान भी क्या काम आ सकता है ? जो लोग समझते हैं कि हम अकेले ज्ञान से ही तर जाएँगे, वे अपने वाचनिक वीर्य से अपने अन्तःकरण को सान्त्वना भले ही दे लें, पर उनका निस्तार नहीं होगा ।
• ऊपर चारित्र के संबंध में जो कुछ कहा गया है, उससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि जैनधर्म में ज्ञान को कोई स्थान ही प्राप्त नहीं है। जैनशास्त्रों का तो विधान ही यह है कि मुक्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - यह तीनों अपेक्षित हैं । सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान मिथ्या रहता हैसम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता और सम्यग्ज्ञान के अभाव में चारित्र, सम्यक्चारित्र नहीं हो सकता । सम्यग्ज्ञान के अभाव में की जाने वाली समस्त कियाएँ मिथ्या हैं और उनसे भवभ्रमण की वृद्धि होती है । इस प्रकार • सम्यग्ज्ञान भी मोक्ष का मार्ग है, मगर वह अकेला मोक्ष-साधक नहीं होता । ज्ञान चारित्र को उत्पन्न करके सार्थक हो जाता है और चारित्र से साक्षात् मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी कारण चारित्र की महिमा है । पूर्वोक्त बारह अंगों में पहला नाम आचारांग सूत्र का ही आता है। इससे भी आचार की प्रधानता झलकती है।
प्रश्न यह है कि जिस चारित्र को जैनधर्म में इतना अधिक महत्त्व दिया गया है, उसका स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर बहुत विस्तार की अपेक्षा रखता है, पर यहाँ थोड़े ही शब्दों में लिखा जाएगा। जैनागमों में चारित्र के मुख्य दो भेद किये गये हैं: - ( १ ) निश्चयचारित्र और ( २ ) व्यवहार
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