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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६८ ] www.kobatirth.org निर्वाणादिसुखप्रदे नरभवे जैनेन्द्र-धर्मान्विते, लब्धे स्वल्पमचारू कामज सुखं नो सेवितुं युज्यते । वैडूर्यादि महोपलौघनिचिते प्राप्तेऽपि रत्नाकरे, लातुं स्वल्पमदीप्तिकाचशकलं किं साम्प्रतं साम्प्रतं ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ श्राचारान-सूत्रम् अर्थात् —मोक्ष के अतुल सुख को देने में साधनभूत मनुष्य-भव को एवं साथ ही जैन-धर्म को प्राप्त करके नीरस कामसुखों का सेवन करना योग्य नहीं है । वैडूर्य आदि बहुमूल्य मणियों से भरे हुए समुद्र को प्राप्त कर लेने पर बिना चमक का तुच्छ कांच का टुकड़ा ग्रहण करना क्या उचित कहा जा सकता है ? वैडूर्य आदि रत्नों को छोड़कर कांच का टुकड़ा ग्रहण करना उचित नहीं है उसी प्रकार नरभव प्राप्त होने पर विषय-भोगों का सेवन करना उचित नहीं है । ७ जो दीर्घदर्शी है, लोक के स्वरूप को जानने वाला और मनुष्य भव के मूल्य और महत्व को सममने वाला है तथा जो विषयभोगों को सर्पक कीवत् त्यागता है वही शूरवीर प्रशंसा का पात्र है और वही त्यागवीर संसार के बन्धनों में जकड़े हुए अन्य प्राणियों को भी बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के बन्धनों से मुक्त कर सकता है । जो स्वयं तैरने की शक्ति रखता है वही दूसरों को तिरा सकता है। जो स्वयं मुक्त होता है वहीं दूसरों को मुक्त कर सकता है । अतएव संसार को सुधारने की इच्छा रखने वाले व्यक्तियों का यह कर्त्तव्य है कि पहिले अपने आपको सुधारें। जो स्वयं सुधरा हुआ नहीं है वह दूसरे को क्या सुधारेगा ? जो स्वयं निर्धन है वह दूसरे को क्या धनी बनावेगा ? अतएव शास्त्रकार यह फरमाते हैं कि जो स्वयं विषय कषाय रूप श्रम्यन्तर बन्धनों और धन, धान्य, पुत्र कलत्रादि बाह्य बन्धनों से मुक्त है ब्रह्मी त्यागवीर अन्य आत्माओं को भी अपनी अनुपम त्यागशक्ति के प्रभाव से बन्धनों से मुक्त कर सकता है। जहा तो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा यंतो, श्रंतो तो पूतिदेहतराणि पासति पुढोवि सवंति पंडिए पडिलेहए । संस्कृतच्छाया- - यथा अन्तस्तथा बहिर्यथा बहिस्तथाऽन्तः, अन्तेऽन्ते पूतिदेहान्तराणि पश्यति - पृथगपि स्रवन्ति पण्डितः प्रत्युपेक्षेत । 1 I शब्दार्थ- -जहा = = जैसे | अंतो अन्दर से सार है । तहा=वैसे । बाहिं बाहर से हैं । जहा बाहि= जैसे बाहर से है । तहा तो वैसे ही अन्दर से हैं। तो अंतो- शरीर के अन्दर २ की । पूतिदेहन्तराणि अशुद्धि और देह की अन्दर की स्थितियों को । पासति = देखता है । पुढोवि = शरीर के द्वार अलग अलग । सवंति मैले पदार्थ बाहर निकालते हैं । पंडिए पंडित पुरुष । पडिलेहए - इसके स्वरूप को समझे ।' 1 भावार्थ – यह शरीर अन्दर से जैसा असार है, वैसा ही बाहर से भी असार है और बाहर से जैसा सार है वैसा ही अन्दर से भी असार है । बुद्धिमान् इस शरीर में रहे हुए दुर्गन्धी पदार्थों तथा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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