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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन पंचमोद्देशक ] [१६५ शरीर के अन्दर की अवस्थाओं को देखता है कि ये हमेशा अशुभ मलादिक पदार्थ शरीर के द्वारों से बाहर निकालते रहते हैं । यह देखकर पंडित पुरुष इसके सच्चे स्वरूप को समझ कर इस शरीर का मोह न रक्खें । विवेचन-प्रकृत सूत्र में शरीर की असारता का वर्णन किया गया है। इसके पहिले के सूत्र में कामभोगों का त्याग करने का उपदेश दिया गया है । भोगों का त्याग या उनके प्रति उदासीनता तबतक नहीं होती जबतक कि शरीर या रूप का मोह नहीं चला जाता । कामी पुरुष रूप की अग्नि में इस प्रकार जलते रहते हैं जैसे पतंगिया दीपक पर पड़कर जल जाता है। कामियों को कामिनियों की कञ्चनमयी काया ही सारभूत प्रतीत होती है। वे इसे ही अमृत समझते हैं और इसीमें सुख की कल्पना करते हैं । वे स्त्रियों के प्रत्येक अवयव की तुलना संसार के सर्वश्रेष्ठ पदार्थों के साथ करते हैं परन्तु अगर सचमुच देखा जाय तो यह सौन्दर्य की कल्पना मात्र विषयासक्ति का ही प्रतिबिम्ब है। बाह्य वस्तुओं में सौन्दर्य जैसी कोई चीज़ नहीं है परन्तु जो कुछ बाह्य वस्तुओं में आकर्षक तत्व के समान प्रतीत होता है वह मनुष्य की वृत्ति का प्रतिबिम्ब मात्र है । यही कारण है कि एक ही वस्तु भिन्न २ व्यक्तियों को भिन्न भिन्न रूप में दिखाई देती है। इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य की वृत्तियों का प्रतिबिम्ब पदार्थों पर पड़ता है जिससे वे आकर्षक मालूम होने लगते हैं । वस्तुतः पदार्थों में यह धर्म नहीं है। मनुष्य शरीर में सौन्दर्य की कल्पना कर उसे स्पर्श करने के लिए प्रयत्न करता है अर्थात् अपने ही प्रतिबिम्ब को पकड़ने की कोशिश करता रहता है इससे वह स्वयं और जिस दर्पण में प्रतिबिम्ब पड़ता है वह दोनों विकृत हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि वस्तुतः जड़ पदार्थों में सौन्दर्य नहीं है परन्तु मनुष्य की वृत्ति में इसका स्थान है। सूत्रकार शरीर की असारता बतलाकर विषयासक्ति को घटाने का मार्ग बतलाते हैं। कामी पुरुष जिस शरीर की सुन्दरता पर लटू हो जाते हैं वह शरीर अन्दर से कैसा है ! इस शरीर में रुधिर, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा, शुक्र, टट्टी, पेशाब, श्लेष्म अदि अनेक दुर्गन्धी पदार्थ भरे हुए हैं। यह शरीर अशुचि का पिण्ड है। कहा भी है: यदि नामास्य कायस्स यदन्तस्तद्वहिर्भवेत् । दण्डमादाय लोकोऽयं शुनः काकांश्च वारयेत् ॥ अर्थात्-इस शरीर के अन्दर ऐसे अशुचि पदार्थ भरे हैं और इस के अन्दर की आकृति ऐसी है कि अगर इसका भीतरी भाग बाहर हो जाय तो मनुष्य को दण्डा लेकर बैठना पड़े जिससे सदा कुत्तों और कौओं को निवारण ही करता रहे । अर्थात् अगर शरीर का भीतरी भाग ऊपर हो तो कौए और कुत्ते हमेशा इस पर पड़ते रहे जिनका निवारण करने के लिए हमेशा दण्डा हाथ में रखना पड़े। तात्पर्य यह है कि यह शरीर अशुचि का पिण्ड होने से अन्दर से अति असार है । यह शरीर अन्दर से जैसा असार है वैसा ही ऊपर से भी प्रसार है। जैसे अशुचि (टट्टी) से भरा हुआ घड़ा अन्दर से भी अशुचिमय है और ऊपर से भी अशुचिमय ही कहलाता है क्योंकि उसके अन्दर अशुचि है। चाहे अशुचि बाहर न हो तो भी अन्दर भरी हुई अशुचि के कारण वह अशुचिमय ही है उसी प्रकार वह शरीर अन्दर से अशुचिमय होने से असार है। इसी तरह ऊपर से भी असार है। इसकी असारता का इससे अधिक क्या प्रमाण चाहिए कि इस पर लगाये हुए सुन्दर से सुन्दर पदार्थ भी खराब हो जाते हैं। चन्दन, केशर, इत्र इत्यादि सुगन्धी पदार्थ इस पर लगाये जाते हैं तो इसके संसर्ग से अल्पकाल में वे भी विकृत हो जाते हैं । शरीर में डाले For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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