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द्वितीय अध्ययन पंचमोद्देशक ]
[१६१
साधु-जन अपने शरीर तक में ममत्व नहीं रखते हैं अतः ममत्वाभाव के कारण धर्मोपकरण परिग्रह रूप नहीं है। जो कर्मबन्धन का कारण है वही परिग्रह है और जो कर्म-निर्जरा के साधन हैं वह परिग्रह हो ही नहीं सकता। गृहस्थ लोग जिस प्रकार अपने साधनों में ममता रखते हैं उस प्रकार अनगार अपने धर्म-साधनों में ममता नहीं रखते हैं इसीलिए सूत्रकार ने कहा है कि साधु धर्म-साधनों को अन्यथा समझे अर्थात् उन्हें अपने नहीं मानकर आचार्य के माने । राग-द्वेष मूलक परिग्रह का निषेध किया गया है, धर्मोपकरणों का नहीं। क्योंकि धर्मोपकरणों के बिना मोक्ष रूप महाकार्य सिद्ध नहीं हो सकता। बड़े कार्यों के लिए साधनों की आवश्यकता होती है । कहा भी है
साध्यं यथा कथाञ्चित् स्वल्यं कार्य महच न तथेति ।
प्लवनमते न हि शक्यं परिगन्तुं समुद्रस्य ॥ अर्थात्-छोटे कार्य तो जैसे तैसे साध्य हो जाते हैं परन्तु बड़े कार्य ऐसे ही सिद्ध नहीं होते हैं। जैसे छोटे-मोटे पल्वल (पानी का छोटा गर्त्त) को कूदकर पार कर सकते हैं परन्तु समुद्र को पार करने के लिए तो नाव की आवश्यकता होती है। नाव के बिना समुद्र नहीं तैरा जा सकता है उसी प्रकार मोक्षसिद्धि के लिए धर्मोपकरणों की आवश्यकता होती है। अतएव धर्मोपकरणों को रखते हुए भी ममत्व के प्रभाव से साधु परिग्रही नहीं कहे जाते हैं। जहाँ ममता आ जाती है वहीं परिग्रह भी आ जाता है अतः ममता के चक्र से सदा सावधान रहना चाहिए।
एस मग्गे पारिएहिं पवेइए जहित्य कुसले नोवलिंपिजासि त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया-एष मार्गः आर्यैः प्रवेदितः, यथात्र कुशलः नोपलिम्पयेत् इति ब्रवीमि ।
शब्दार्थ-एस-यह । मग्गेमार्ग। आरिएहि तीर्थङ्करों द्वारा। पवेइए अरूपित किया गया है । जहित्थ इसमें प्रवृत्ति करने वाला । कुसले कुशल व्यक्ति । नोवलिंपिजातिकर्मबन्धन में नहीं बँधता है । त्ति बेमि=ऐसा कहता हूँ।
भावार्थ-यह मार्ग तीर्थंकरों ने बताया है । इसमें प्रवृत्ति करने वाला कुशल व्यक्ति कर्म बन्धनों में नहीं बँधता है।
विवेचन-उपर्युक्त अहंता और ममता कर्म-बन्धन के प्रधान कारण हैं। जिसने इनका त्याग कर दिया है वह बन्धनों में नहीं बँध सकता है। जिनेन्द्र प्रभु के शासन में अहंता और ममता का बहिष्कार किया जाता है। धर्मवर-चक्रवर्ती जिनेन्द्र देव की यह उद्घोषणा है कि मेरे शासन में चलने वालों को अहंकार और ममत्व का बहिष्कार करना पड़ेगा। जो उस घोषणा के अनुसार प्रवृत्ति करता है वह सुखशान्ति प्राप्ति करता है । जो आज्ञा का भंग करता है वह बेड़ियों से जकड़ा जाता है उसी तरह जो ममता और अहंता को आश्रय देते हैं वे कर्म-बन्धनों से जकड़े जाते हैं । अतः सुख-शान्ति के इच्छुक अन गार का यह कर्त्तव्य है कि तीर्थंकरों के द्वारा प्ररूपित इस मार्ग में प्रवृत्ति करे ताकि कर्म-बन्धनों से लिप्त न हो । कर्मभूमि, मोक्ष रूपी वृक्ष के लिए बीज के समान सम्यक्त्व और संवररूप चारित्र को प्राप्त करके ऐसी प्रवृत्ति करनी चाहिए ताकि कर्मबन्धन न हो। यथोक्त अनुष्ठान करने पर कदापि बन्धन नहीं होता है।
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