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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १६० ] - [आचाराग-सूत्रम् ताकि गृहस्थ को किसी प्रकार बाधा न हो और नया प्रारम्भ न करना पड़े। भिनुसाधक का जीवन इतना विशुद्ध और पवित्र होता है कि वह किसी को भाररूप नहीं होता और किसी को तकलीफ हो ऐसी प्रवृत्ति वह नहीं करता इसलिए ऐश्वर्यादि गुण-समन्वित श्रमण भगवान् ने अपने श्रीमुख से यह फरमाया है कि अनगार को मात्रा का ज्ञान होना चाहिए । आहारादिक की प्राप्ति के समय दो महान् दोषों की उत्पत्ति की सम्भावना रहती है । वे दो महादोष हैं-अभिमान और परिग्रह । आहारादि पदार्थों के मिलने पर साधु को यह अभिमान हो सकता है कि "अहो ! मैं कैसा लब्धि सम्पन्न हूँ कि मुझे ऐसा लाभ हुआ। इस दोष का निराकरण करने के लिए सूत्रकार ने फरमाया है कि लाभ होने पर अभिमान न करे । इसी प्रकार लाभ न होने पर यों खेद भी नहीं करना चाहिए कि "मुझे धिक्कार है, मैं अभागा हूँ कि मुझे प्राप्ति नहीं होती है। दोनों अवस्थाओं में मध्यस्थ वृत्ति रखते हुए विचारना चाहिए कि लभ्यते लभ्यते साधु, साधु एव न लभ्यते.। अलब्धे तपसो वृद्धिलब्धे तु प्राणधारणम् ।। अर्थात्-मिले तो भी अच्छा, नहीं मिले तो भी अच्छा। नहीं मिलने पर तपश्चर्या का प्रसंग प्राप्त होता है और मिलता है तो प्राणधारण होता है। उभय अवस्था में समभाव रखना साधु का कर्तव्य है। इसी में संयम की साधना है। • परिग्रहवृत्ति का निषेध करते हुए शास्त्रकार फरमाते हैं कि बहुत मिल सकने का अवसर प्राने पर भी साधु संग्रह न करे । अल्प और बहुत किसी भी तरह का संग्रह करना अनगार-धर्म के विरुद्ध है। जहाँ संग्रहवृत्ति है वहाँ अनगारत्व टिक नहीं सकता अतएव अणुमात्र भी संग्रह नहीं करना चाहिए । यहाँ आहार शब्द उपलक्षण है इससे यह अर्थ निकलता है कि अन्य भी वस्त्र, पात्रादि पदार्थों का भी संग्रह न करे और परिग्रह से अपनी आत्मा को दूर रक्खे । अन्य पदार्थों की बात तो दूर रही परन्तु धर्मोपकरणों पर भी यदि ममता है तो वह भी परिग्रह है क्योंकि शास्त्रों में मूर्छा को परिग्रह कहा गया है अतएव धर्मोपकरणों को भी मात्र उपकरण समझे और उन पर ममता न रक्खे । शंका-शंका होती है उपकरण मात्र परिग्रह है तो धर्मोपकरण परिग्रह क्यों नहीं है ? क्योंकि यह परिग्रह भी चित्त की मलिनता के बिना नहीं होता है। जैसे कि अपने पर उपकार करने वाले पर रागभाव होता है और उपघात करने वाले पर द्वेष भी होता है। इस तरह परिग्रह मात्र से राग-द्वेष नजदीक आते हैं और इससे कर्मबन्धन होता है। इससे धर्मोपकरण परिग्रह नहीं है यह कैसे माना जाय ? उत्तर-इस प्रकार की शंका योग्य नहीं है क्योंकि वस्तु के सद्भाव मात्र से उस पर राग-द्वेष नहीं हो सकता है। धर्मोपकरणों के रखने पर भी साधुओं का उन पर ममत्व नहीं होता है । जहाँ तक ममता नहीं है वहाँ तक परिग्रह नहीं है क्योंकि ममता ही परिग्रह है। अगर ऐसा न माना जाय तो शरीर को भी परिग्रह मानना पड़ेगा तो शरीर के रहने तक कोई अपरिग्रही नहीं हो सकेगा। अतः यह मानना चाहिए कि ममता ही परिग्रह है । वस्तुओं का सद्भाव परिग्रह नहीं है । साधुओं को धर्मोपकरणों पर “यह मेरा यह मेरा” इस प्रकार का आग्रह नहीं होता । यहाँ तक कहा है कि अवि अप्पणोऽवि देहम्मि नायरंति ममाइयं । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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