________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
१६२ ]
[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
बन्धन तभी होता है जब यथोक्त अनुष्ठान में त्रुटि रह जाती है । अतएव जिन व्रतों को अङ्गीकार किया है उन्हें उसी तरह आजीवन पालते रहना चाहिए। क्योंकि जो मनस्त्री पुरुष होते हैं वे प्राण त्याग देते हैं परन्तु अङ्गीकृत व्रतों का भंग नहीं करते हैं । अतः श्रप्रमत्त भाव से जिनेन्द्र प्ररूपित मार्ग में प्रवृत्ति करते रहना चाहिए ।
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
श्री सुधर्मा स्वामी अपने अन्तेवासी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे प्रिय जम्बू ! मैंने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पादारविन्द की सेवा करते हुए उनके श्रीमुख से सुना है सो तुझे कहता हूँ । अपनी बुद्धि से नहीं । यह कहकर श्री सुधर्मा स्वामी अपनी लघुता और उपर्युक्त कथन की गुरुता प्रकट करते हैं ।
कामा दुरतिकमा, जीवियं दुष्पडिवूहगं, कामकामी खलु प्रयं पुरिसे, से सोयर, जूरइ, तिप्पड़, परितापइ ।
संस्कृतच्छाया- -कामा दुरतिक्रमाः, जीवितं दुष्प्रतिबृंहणीयं, कामकामी खल्वयं पुरुषः । स शोचते खिद्यते, तेपते, परितप्यते ।
शब्दार्थ — कामा- कामभोग । दुरतिकमा-छोडना अति विकट है । जीवियं जीवन । दुप्पडिवूहगं नहीं बढ़ाया जा सकता । कामकामी = विषयों का लोलुपी । श्रयं से पुरिसे यह पुरुष । सोयइ – शोक करता है । ज्ररह=विलाप करता है । तिप्पड़ लज्जा छोड़ देता है । परितप्पइ = पीड़ा पाता है ।
भावार्थ — हे जम्बू ! विषयवासना का त्याग करना अति विकट काम है और जीवन का एक क्षण भी चढ़ नहीं सकता है ( इसलिए सतत सावधान रहना चाहिए ) जो पुरुष विषय भोगों का अभिलाषी होता है वह विषयों के चले जानेपर अत्यन्त शोक करता है, विलाप करता है, लज्जा और मर्यादा को छोड़ देता है और अत्यन्त पीड़ा का अनुभव करता है ।
विवेचन - पूर्व सूत्र में परिग्रह का त्याग करने का उपदेश दिया गया है । जबतक कामभोगों की अभिलाषा बनी रहती है वहाँ तक परिग्रह का त्याग तो संभव ही नहीं है वरन् परिग्रह बढ़ता ही जाता है अतः इससूत्र में कामवासना को त्यागने का उपदेश दिया गया है और कामी पुरुष की दुखमय दशा का चित्र चित्रित किया गया है। वस्तुतः विषय भोगों का त्याग करना बच्चों का खेल नहीं है। यह अत्यन्त विकट काम है | त्यागमार्ग बड़ा विषम है। कहा है
आगासे गंगसोउव्व पडिसोउव्व दुत्तरो । बाहाहि चैव गंभीरो तरिश्रव्वो महोही ॥ बालुगाको चे निरासाए हु संजमो । जवा लोहमया चैव चावेयव्वा सुदुक्करं ॥
For Private And Personal