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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ] की परीक्षा उसके गुण-अवगुण की कसौटी पर होनी चाहिए, किसी अलौकिक कल्पना के आधार पर नहीं। गुण-अवगुण को गौण करके अन्यान्य बातों को कसौटी बनाना एक प्रकार की दुर्बलता ही कही जा सकती है। ... यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि अगर जैनागम ईश्वर द्वारा भेजे हुए नहीं हैं और अनादिकाल से ज्यों के त्यों नहीं चले आये हैं तो फिर उन्हें नित्य और शाश्वत क्यों कहा गया है ? पूर्वोक्त द्वादशांगी के संबंध में कहा गया है: दुवालसंगे णं गणिपिडगे ण कयावि णत्थि, ण कयावि णासी, ण कयाविण भविस्सइ, भुवि य, भवति य, भविस्सति य । धुवे, णितिए, सासए, अक्खए, अब्धए, अवट्ठिए, णिच्चे। अर्थात्-द्वादशाङ्ग गणिपिटक कभी नहीं है ऐसा नहीं है, कभी नहीं था ऐसा भी नहीं है, कभी नहीं होगा ऐसा भी नहीं है। यह पहले था, अभी है और भविष्य में होगा। यह ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता है। जगत् अनादि है और जगत् में जो तत्त्व हैं वे अपने मूल स्वरूप में अनादि हैं। सभी तत्त्व अपने-अपने मूल स्वभाव में स्थिर रहते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सत्य त्रिकाल-अबाधित है । देश और काल की परिधि से पर है। किसी भी देश में और किसी भी काल में सत्य का रूपान्तर नहीं होता। आत्मा है और उपयोग उसका स्वभाव है, आकाश है और अवकाश देना उसका गुण है, काल है और वर्तना तथा परिणाम आदि उसके उपग्रह हैं, यह सत्य भूतकाल में भी था, वर्तमान में भी है और भविष्य में भी होगा। इस प्रकार जब वस्तुस्वरूप त्रिकाल में एक-सा है तो उसका निरूपण भी सदैव एक-सा ही हो सकता है । अतएव सत्य वस्तुस्वरूप का प्ररूपक आगम भी नहीं बदल सकता। इसी प्रकार आचारधर्म के मूल सिद्धान्त भी शाश्वत हैं। अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह आदि आज धर्म हैं, भूतकाल में भी धर्म थे और भविष्य में भी धर्म ही रहेंगे। किसी भी काल में, किसी भी देश में और किसी भी परिस्थिति में हिंसा धर्म नहीं हो सकता, असत्यभाषण धर्म नहीं हो सकता और ब्रह्मचर्य पाप नहीं हो सकता । संभव है, कभी किसी परिस्थिति में, किसी व्यक्ति या समुदाय को हिंसा का आचरण करने के लिए विविश होना पड़े और यह भी संभव हो सकता है कि वह अक्षन्तव्य न मानी जाय, फिर भी उसे धर्म तो नहीं ही कहा जा सकता । 'हिंसा नाम भवेद् धर्मो न भूतो न भविष्यति ।' हिंसा न धर्म है, न हुआ है और न कभी होगा। तात्पर्य यह है कि दर्शनशास्त्र के मूलतत्त्व और धर्मशास्त्र का मूल श्राचार सदैव एकरूप रहता है और इस कारण उसका निरूपण भी सदा एक ही रूप हो सकता है। ऐसी स्थिति में तत्त्व और प्राचार का निरूपण करने वाला आगम भी अपरिवर्तित ही रहेगा। इसी दृष्टिकोण से द्वादशांगी को नित्य, ध्रुव और शाश्वत कहा है । शाब्दिक रूप में कोई भी अागम या शास्त्र नित्य नहीं हो सकता । जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जैनागम को भ० महावीर के उपदेशानुसार उनके प्रमुख शिष्यों ने ( गणधरों ने ) ग्रन्थ का रूप प्रदान किया है। जैनागमों का विषय-निरूपण सर्वांगपूर्ण है । जड़-चेतन, अात्मा-परमात्मा आदि समस्त विषयों का जितना सूक्ष्म, गंभीर और विशद विवेचन जैनागमों में है, अन्यत्र मिलना कठिन है । दार्शनिक दृष्टि For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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