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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन पंचमोद्देशक ] (५) साहरिय-सचित्त में से अचित्त निकाल कर आहार देना-लेना। (६) दायग-अंबे, लूले, लंगड़े के हाथ से आहार का देना-लेना। (७) उम्मीसे–सचित्त और अचित्त मिश्रकर आहार का देना-लेना। (८) अपरिणय-जिस पदार्थ में शस्त्रपरिणत न हुआ हो ऐती वस्तु देना-लेना। (६) लित्त-तुरन्त लिपी हुई भूमिका अतिक्रमण करके आहार देना-लेना। (१०) छड्डिय-भूमि पर छींटे डालते हुए देना-लेना। मण्डल दोष आहार करते समय सिर्फ साधु को लगते हैं । वे पाँच इस प्रकार हैं-(१) संजोयणा (२) अप्पमाणे ( ३) इङ्गाले (४) धूमे और (५) अकारणे । (१) संजोयणा-जिह्वा की लोलुपता के वशीभूत होकर आहार सरस बनाने के लिए पदार्थों को मिला मिलाकर खाना जैसे दूध के साथ शक्कर मिलाना आदि । (२) अप्पमाणे-प्रमाण से अधिक भोजन करना। (३) इङ्गाले-सरस अहार करते समय वस्तु की या दाता की तारीफ करते हुए खाना। (४) धूमे-सरस आहार करते समय वस्तु या दाता की निंदा करते हुए नाक, भौं सिकोड़ते हुए अरूचि पूर्वक खाना । (५) अकारण-जुधावेदनीय आदि पूर्वोक्त छह कारणों में से किसी भी कारण के बिना ही आहार करना। आहार सम्बन्धी इन दोषों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि साधु-जीवन में अहिंसा और संयम को जिनागम में कितना उच्च स्थान दिया गया है तथा पद-पद पर उसका कितना अधिक ध्यान रक्खा जाता है । संयमी अपने निमित्त कोई भी क्रिया गृहस्थों द्वारा नहीं करवाना चाहते हैं तदपि जो कोई श्रावक भक्ति के अतिरेक से प्रेरित होकर कोई ऐसा कार्य करता है तो साधु उस आहारादि को अकल्पनीय समझ कर त्याग देता है। साधु यद्यपि भिक्षु है तो भी वह धर्म का प्रतिनिधि है। इस कारण वह भिक्षा प्राप्त करने के लिए दीनता प्रदर्शित करके शासन की महत्ता नष्ट नहीं करता और न आहार के बदले के रूप में दाता गृहस्थ की स्तुति या तारीफ ही करता है। आहार संयमी के लिए अनुराग या आकर्षण की वस्तु नहीं है वरन् आध्यात्मिक उपयोगिता की वस्तु है इसलिए वह स्वाद की परवाह नहीं करता और जैसी भी वस्तु मिल जाय उसे वह अनासक्त भाव से ग्रहण करता है। आहार जीवन में एक महत्त्व पूर्ण वस्तु है । आहार का वृत्तियों पर असर होता है। अतः भिक्षा द्वारा प्राप्त सात्विक आहार से संयम की परिपालना करना चाहिए । मूलसूत्र में 'लोगस्स' शब्द दिया गया है उसका अर्थ 'अपने शरीर के लिए ऐसा किया गया है । शंका होती है कि लोक शब्द का अर्थ शरीर तो नहीं होता है तो फिर यहाँ ऐसा क्यों ग्रहण किया गया ? इसका समाधान यह है कि शरीर पौद्गलिक है और परमार्थ दृष्टाओं के लिए ज्ञान-दर्शन और चारित्र को छोड़कर शेष सब पौद्गलिक वस्तु पर (भिन्न) ही है अतः शरीर को स्वरूप से भिन्न होने के कारण पररूप लोक कहा गया है । अर्थात् गृहस्थ जन अपने लिए और पुत्रादिकों के लिए प्रारम्भ-प्रवृत्ति करते हैं । अथवा तृतीया के अर्थ में षष्टी विभक्ति का प्रयोग जानकर-लोगों द्वारा प्रारम्भ किया जाता है यह अर्थ भी संगत है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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