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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [आचाराग-सूत्रम् ... सूत्र में सन्निधि और सन्निधय दो पद दिये गये हैं। इसमें सन्निधि का अर्थ आहारादि शीघ्न विनाशी द्रव्यों के संग्रह से है और सनिचय पद से धनादि के समान किंचित्काल स्थायी द्रव्यों के संग्रह से प्रयोजन समझना चाहिए। इससे आरम्भ और परिग्रह दोनों का ग्रहण समझना चाहिए । गृहस्थ वर्ग अपने और अपने स्वजनों के लिए प्रारम्भ-परिग्रह करते हैं उनमें से साधु को अपनी वृत्ति की अन्वेषणा करनी चाहिए। समुट्ठिए अणगारे प्रारिए पारियपन्ने धारियदंसी अयं संधिति अदक्खु, से नाईए, नाइयावए, न समणुजाणइ, सव्वामगंध परिनाय निरामगंधो परिव्वए। संस्कृतच्छाया--समुत्थितोऽनगार आर्य आर्यप्रज्ञः आर्यदर्शी, अयं सन्धिरित्यद्राक्षात्, स नाददीत नादापयेत् न समनुजानीयात् सर्वामगन्धं परिज्ञाय निरामगंधः परिव्रजेत् । - शब्दार्थ-समुट्ठिए संयम में उद्यमी। आरिए आर्य । आरियपन्ने पवित्र बुद्धि वाला। आरियदंसी न्याय दी । अयंसंधि यथावसर क्रिया करने वाला । इति इसलिए । अदक्खु= परमार्थ को जानने वाला । अणगारे साधु । से-वह । नाईए अकल्पनीय आहार न ग्रहण करे। नाइयावए ग्रहण न करावे । न समणुजाणइ ग्रहण करते हुए को अनुमोदन न दे । सव्वामगंध= सब प्रकार के अशुद्ध आधाकादि दूषणों को । परिन्नाय जानकर । निरामगंधो निर्दोष रूप से । परिव्वए संयम का पालन करे। भावार्थ-संयम में उद्यमी, आर्य, पवित्र बुद्धिमान्, न्यायदर्शी और समयज्ञ तथा तत्वज्ञ अनगार दूषित आहार ग्रहण करे नहीं, करावे नहीं और दूसरे को अनुमोदन दे नहीं और सब प्रकार के दूषणों से रहित होकर निर्दोष रीति से संयम का पालन करे। - विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में अनगार साधु के विशेषणों का वर्णन करते हुए निर्दोष आहार ग्रहण करके संयमयात्रा का निर्वाह कहना चाहिए यह प्रतिपादन किया गया है । अनगार के लिए-समुल्थित, आर्य, आर्यप्रज्ञ, प्रार्यदर्शी, अयंसंधि और तत्त्वज्ञ ये विशेषण दिये गये हैं। ये समस्त विशेषण सार्थक हैं और साधु पद की जिम्मेदारी को सूचित करते हैं। जिसके घर और घर का ममत्व न हो वह अनगार । संयम में सदा सावधान, जागरूक और अप्रमत्त रहने वाला समुत्थित है । जिसका अन्तःकरण निर्मल हो वह आर्य । जिसकी बुद्धि परमार्थ की ओर प्रवृत्त होती है वह अायप्रज्ञ है । न्याय में सतत रमण करने वाला आर्यदर्शी है। समयानुसार योग्य क्रिया करने वाला समयज्ञ है । जो स्वाध्याय, प्रतिलेखनादि क्रिया जिस जिस काल में करनी चाहिए उसी नियत समय पर करने वाला, समय को पहचानकर यथाकाल अनुष्ठान करने वाला समयज्ञ है । जो यथाकाल ( समय को पहचानकर ) क्रिया करता है वही सचमुच परमार्थ को जानता है और वही तत्त्वज्ञ कहलाता है । इन विशेषणों से युक्त अनगार का कर्तव्य है कि दूषित श्राहार स्वयं ग्रहण न करे, दूसरों से ग्रहण न करावे और ग्रहण करते हुए अन्य को अनुमोदन न दे। आहार के दोषों का वर्णन पहिले किया जा चुका है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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