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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४४ ] [पाचाराङ्ग-सूत्रम् शब्दार्थ-कं च किसी भी प्राणी की। णातिवाएज=हिंसा न करे। जे जो व्यक्ति । श्रादाणाए संयम में । ण लिविजति खेद नहीं प्राप्त करता है। एस वीरे-वही वीर । पसंसिए प्रशंसित होता है। भावार्थ-संयमी किसी भी प्राणी को पीड़ा न पहुँचावे । जो सयम के पालन में किसी प्रकार का खेद नहीं करते हैं वे पराक्रमी मुनि इन्द्रादि द्वारा भी प्रशसित होते हैं। विवेचन-भोगों की निवृत्ति का उपदेश देते हुए सूत्रकार ने अन्त में यह फरमाया है कि किसी भी प्राणी को पीड़ा न पहुचावें। इसका कोई खास आशय होना चाहिए वह आशय यह है कि भोगों की निवृत्ति और अहिंसा ये दोनों अंग जब मिलते हैं तब संयम की साधना सफल होती है। यह बताने के लिए भोगनिवृत्ति के उपदेश में अहिंसा का उपदेश दिया गया है। दूसरी बात यह है कि जहाँ आसक्ति है वहाँ प्राणियों का अतिपात अत्यधिक होता है इसलिए आसक्ति के मिटने पर प्राणातिपात भी मिटना चाहिए यह इससे सूचित किया है । जहाँ तीव्र श्रासक्ति है वहाँ हिंसा है। अतएव आसक्ति और हिंसा का त्यागइसीका नाम संयम है। संयम की परिपूर्ण व्याख्या देने के पश्चात् सूत्रकार ने यह भी सूचित किया है संयम का पालन करना बच्चों का खेल नहीं है । संयम का पालन करना अलूनी शिला का चाटना है, बालू के कणों को चबाना है और तलवार की तीक्ष्ण धारा पर चलना है। कायरों द्वारा इसका पालन किया जाना अति दुष्कर है। जो वीर संयम के पालन में जरा भी खेद नहीं प्राप्त करते हैं उनकी देवाधिराज इन्द्र भी प्रशंसा करता है । वीरों के इस मार्ग पर वीर ही चल सकते हैं; कायर नहीं । संयमी अवस्था में ऐसे अनेकों प्रसंग आते हैं जब कि कायर व्यक्ति मनोबल हार जाता है और संयम में दुख का अनुभव करने लग जाता है परन्तु जो कर्मरिपुओं का विदारण करने में वीर है वह तो ऐसे प्रसंगों का हर्ष के साथ स्वागत करता है और संयम में विशेष दृढ़ता प्राप्त करता है । अतः संयम का पालन करना वीरों का ही काम है। ऐसे वीरों की ही कीर्ति गाथा गाई जाती है और युगयुगान्तर तक उनके गुणों की निर्मल यशरूपी पताका विश्व में फहराती रहती है। 'श्रादान' शब्द से यहाँ संयम का अर्थ ग्रहण किया गया है क्योंकि संयम के द्वारा ही आत्मस्वरूप का ग्रहण होता है । समस्त कमों के आवरण के क्षय होने से प्रकट होने वाला केवलज्ञान और निराबाध सुख की प्राप्ति का प्रधान कारण संयम ही है अतः उक्त अर्थ ग्रहण किया गया है। ‘ण मे देति' ण कुप्पेज्जा, थोवं लद्धं ण खिसए, 'पडिसेहिनो परिणमिजा मोणं समणुवासिन्जासि त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया-"न मे ददाति” न कुप्येत् स्तोकं लब्ध्वा न निन्देत् । प्रतिषिद्धः परिणमेत एतन्मानं समनुवासयेः इति बवाम । १ पडिलाभियो। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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