________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
द्वितीय अभ्ययन चतुर्थोद्देशक ]
[ १४३ करना चाहिए। दूसरी बात यह है कि विषयकषायादि प्रमाद शरीरस्थ होते हैं और शारीरिक सुख के लिए इन प्रमादों का सेवन किया जाता है, जिस शरीर के निमित्त इनका सेवन किया जाता है वह शरीर भी विनश्वर और क्षणभङ्गुर है। यों शरीर की क्षणभङ्गुरता का विचार करके भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
“नालं पास" इत्यादि सूत्र से सूत्रकार ने भोगों से होने वाली अतृप्ति का निर्देश किया है। यथेष्ट मात्रा में भोग भोग लेने पर भी अभिलाषा कभी तृप्त नहीं होती है। विशेषता तो यह है कि ज्यों ज्यों भोग भोगे जाते हैं त्यों त्यों अभिलाषा बढ़ती है। जो उपभोग करके अभिलाषा को शान्त करना चाहता है वह मानों सायंकाल की आगे बढ़ती हुई छाया को पकड़ने के लिए प्रयत्न करता है । ज्यों ज्यों छाया को पकड़ने के लिए प्राणी दौड़ता है त्यों त्यों छाया आगे बढ़ती जाती है। इसी प्रकार प्राणी भोग भोगकर ज्यों ज्यों अभिलाषा की तृप्ति करने की इच्छा करता है त्यों त्यों भोग-लालसा बढ़ती जाती है। कहा है
उपभोगोपायपरो वाञ्छति यः शमयितुं विषयतृष्णाम् ।
धावत्याक्रमितुमसौ, पुरोऽपराहणे निजच्छायाम् ॥ संसार के समस्त भोगोपभोग के साधन यदि एक ही व्यक्ति को दे दिये जाँय तो भी उसकी अभिलाषा और तृष्णा की शान्ति नहीं हो सकती है। तीन लोक का वैभव और अप्सराओं के समान सभी सुन्दरियाँ किसी एक प्राणी को मिल भी जॉय तो भी शान्ति असंभव है। इससे यह अर्थ निकलता है कि भोगों में अभिलाषा और तृष्णा को शान्त करने की शक्ति नहीं है। अर्थात् दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि:
भोगा न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः । अर्थात्-भोगी जीव भोगों को नहीं भोग सकता है अपितु भोग ही उसे भोगते हैं। गीता में भी कहा गया है कि
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवत्मैव भूय एवाभिवर्धते ॥ अर्थात्-जैसे अग्नि में घृत की आहुति देने से वह बढ़ती ही है इसी प्रकार काम भोगों का सेवन करने से भोग लालसा बढ़ती ही है। उपभोग करने से काम कभी शान्त नहीं होता है। अतः विवेकशील प्राणियों को भोगों से निवृत्ति करनी चाहिए । इसी में सच्चा सुख रहा हुआ है। ये कामभोग महा भयंकर फल देने वाले हैं इसलिए महा भयरूप हैं । जैसे किंपाक फल अत्यन्त मनोहर, आकर्षक और सुन्दर मालूम होता है लेकिन उसका सेवन अत्यन्त दारूण फल देने वाला होता है-यहाँ तक कि प्राण हरण कर लेता है। ठीक इसी तरह ये कामभोग बड़े मनोहर, रम्य और चित्ताकर्षक लगते हैं परन्तु इनका सेवन दारूण और भयंकर फल देता है । यह विचार कर भोगों से विरक्त होना प्रत्येक विचारशील का कर्त्तव्य है।
पातिवाएज कंचणं । एस वीरे पसंसिए जे ण णिविजति भादाणाए। संस्कृतच्छाया–नातिपातयेत् कञ्चन । एष वीरः प्रशंसितो यो न निर्विद्यते भादानाय ।
For Private And Personal