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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन चतुर्थोद्देशक ] [ १४५ शब्दार्थ — ण मे देति यह गृहस्थ मुझे नहीं देता है ऐसा विचार कर | ण कुप्पेजा= क्रोध न करे । थोवं=अल्प | लद्धुं = प्राप्ति होने पर । ग खिसए - निन्दा न करे । पडिसेहिओ= मना कर देने पर । परिणमेजा - वहाँ से लौट जाना चाहिए। एयं मोणं - इस प्रकार संयम का | समवासिज्जासि = सम्यग आराधन करना चाहिए । भावार्थ – ( संयमी अपने संयम के निर्वाह के लिए उपयोगी साधन गृहस्थों द्वारा निर्दोष रूप से प्राप्त करे ) कदाचित् कोई नहीं दे तो उसपर संयमी साधु क्रोध न करे और कोई अल्प दे तो उसकी निन्दा भी न करे । गृहस्थ के द्वारा मना कर देने पर साधु का यह कर्तव्य है कि वह शीघ्र वहां से लौट जावे और कोई गृहस्थ देवे तो भी शीघ्र वहां से लौट जाना चाहिए । ( नहीं देने पर निन्दा करना या देने पर प्रशंसा करना यह साधु का धर्म नहीं है) इस प्रकार परिपूर्ण संयम का आराधन करना संयमी का सचा कर्तव्य है । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र से सूत्रकार ने भोग और उपयोग का भेद बताया है । संयमियों को भी संयम के निर्वाह के लिए साधनों की आवश्यकता होती है और संयमी भी उन साधनों का उपयोग करते हैं तदपि संयमी का साधनों का प्रयोग करना उपयोग कहा जाता है और भोगियों का साधनों का प्रयोग उपयोग न कहलाकर भोग कहलाता है । इसका कारण यह है कि त्यागी और संयमी अनासक्त होकर आवश्यक साधनों का उपयोग करते हैं अतः वह उपयोग कहा जाता है परन्तु भोगियों की साधनों में ति रहती है व उनके साधनों के प्रयोग को भोग कहा जाता है । साधनों का प्रयोग उभयत्र होते हुए भी आसक्ति और अनासक्ति की विशेषता के कारण एक भोग कहा जाता है और एक उपयोग कहा जाता है । भोगी साधनों की आसक्ति के कारण उनका दास हो जाता है और उनकी प्राप्ति में हर्ष प्राप्ति में विषाद करता है परन्तु त्यागी साधनों का वशवर्ती नहीं होता । साधनों के मिलने या न मिलने पर उसे राग और द्वेष नहीं होता । यद्यपि प्रजा का यह कर्त्तव्य है कि संयमी को संयम के निर्वाह के लिए आवश्यक साधन प्रदान करे तदपि यदि प्रजा अपने कर्त्तव्य से च्युत होती है तो भी संयमी राग-द्वेष के वशीभूत न होकर अपने कर्त्तव्य में दृढ़ रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जहाँ आसक्ति है वहाँ भोग है और जहाँ अनासक्ति है वहाँ उपयोग है। यही भोग और उपयोग का भेद हैं । भोग दुखों का कारण है और उपयोग सुखों का कारण है । भोग में स्वच्छंदता है और उपयोग में विवेक । भोग नरक है और उपयोग स्वर्ग । भोग अन्धकार है और उपयोग प्रकाश । • शास्त्रकार ने परिग्रह का लक्षण बताते हुए फरमाया है कि "मुच्छा परिग्गहो वृत्तो" मूर्छा ही परिग्रह है । संयमी संयम के लिए उपयोगी वस्त्र पात्रादि द्रव्योपधि रखते हैं परन्तु उसमें मूर्छा (आसक्ति) नहीं रखने के कारण वे अपरिग्रही कहे जाते हैं । संयमी साधु को संयम के साधन भूत शरीर का निर्वाह करने के लिए अन्य - निश्रित होना पड़ता है । उसे गृहस्थों द्वारा बनाये हुए आहारादि में से कल्पनीय एषणादि दोषों से रहित निर्दोष रीति से भिक्षावृत्ति के द्वारा ग्रहण किए हुए आहारादि से अपनी देहपालना करनी होती है । भिक्षावृत्ति द्वारा हार की गवैषणा करते हुए कई प्रकार के उच्च-नीच प्रसंग प्राप्त होते हैं। साधु भिक्षा के लिए गृहस्थ के For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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