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[आचाराग-सूत्रम् शब्दार्थ-तृतीयोदेशकवत् ।
भावार्थ-इस प्रकार "भविष्यकाल में उपयोगी होगा" इस आशा से उपार्जित धन को खर्च नहीं करने से उस प्राणी के पास किसी समय प्रचुरमात्रा में धन-सम्पत्ति एकत्रित हो जाती है परन्तु उस सम्पत्ति को स्वजन बांट लेते हैं अथवा चोर चुरा ले जाते हैं, अथवा राजा लूट लेते हैं, अथवा व्यापारादि नष्ट हो जाती या अग्नि से जलकर विनष्ट हो जाती है ।
विवेचन-इस सूत्र द्वारा सिद्धान्तकार संग्रहवृत्ति का घोर विरोध करते हुए संग्रह का दुष्परिणाम प्रकट करते हैं । संग्रहवृत्ति प्राध्यात्मिक पतन तो करती ही है परन्तु साथ ही साथ सामाजिक विषमता को जन्म देती है जिसके कारण समाज की व्यवस्था छिन्नभिन्न होती है। समाज की सुव्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि कोई व्यक्ति उचित आवश्यकताओं की पूर्ति से अधिक द्रव्य संग्रहित कर न रखे क्योंकि इसका परिणाम यह होता है कि समाज का दूसरा जन-समूह अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं को पूर्ण करने के उसके न्यायसंगत अधिकार से भी वंचित रह जाता है। एक अङ्ग आवश्यकता से अधिक पुष्ट है तथा दूसरा अङ्ग अत्यन्त क्षीण है इससे समाजरूपी शरीर सुख शान्ति रूप आरोग्य से हीन है। शरीर के आरोग्य के लिए आवश्यक है कि शरीर के प्रत्येक अङ्ग को अनिवार्य पोषक तत्त्व मिले और इसी अवस्था में शरीर तन्दुरुस्त रह सकता है । ठीक इसी तरह समाज में तभी सुख-शान्ति रह सकती है जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यक सामग्री प्राप्त करता हो । यह संग्रहवृत्ति समाज के एक बड़े भाग को आवश्यक सामग्री से वंचित करती है जिससे समाज सुव्यवस्थित नहीं हो सकता । फल यह होता है कि मनुष्य, मनुष्य से भी डरने लगता है। अतः इस विषमता को मिटाने के लिए संग्रहवृत्ति पर अंकुश रखना अनिवार्य है।
श्राध्यात्मिक दृष्टि से तो संग्रह करना भयंकर पाप है। इससे प्रात्मा का गहरा पतन है यह बात दीपक के समान स्पष्ट है । संग्रह की वृत्ति रखने वाला प्राणी कैसे कर्म करता है, किन किन साधनों से संग्रह करता है, वे संग्रह के साधन न्याययुक्त हैं या अन्यायरंजित ? इन बातों का उत्तर सर्वविदित ही है। एक समय ऐसा आता है कि जब संग्रह करने वाले को ठोकर लगती है और उसे चेतने का अवसर प्राप्त होता है । जब प्राणी यह देखता है कि जिसके लिए जीवनभर पचता रहा और जिसके लिए इतना पसीना बहाया वह लक्ष्मी उसे लात मारकर दूसरी ओर खड़ी हो जाती है। वह अपने ही सामने, अपनी ही आँखों से कष्टों द्वारा उपार्जित और प्रयत्न पूर्वक रक्षित लक्ष्मी का नाश होता हुआ देखता है और पश्चात्ताप करता है। उस लक्ष्मी का या तो संबन्धी जन विभाग कर लेते हैं, चोर चुरा ले जाते हैं, राजा लूट लेते हैं, व्यापारादि में हानि हो जाती है या आग में जल जाती है। ऐसे अवसर पर भी उसको इस दृश्य से सीख लेकर आसक्ति का त्याग करना चाहिए परन्तु वह मूढ़ प्राणी पश्चात्ताप की भट्टी में जलकर और अधिक आसक्त होता है और विपर्यास (विपरीतता) को प्राप्त करता है।
इति से परस्स अट्ठाए कूराणि कम्माणि बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विपरियासमवेति ।
संस्कृतच्छाया-इति स परस्मै अर्थाय कराणि कर्माणि बालः प्रकुर्वाणः तेन दुःखेन मूढो विपर्यासमुपैति ।
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