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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वितीय अध्ययन चतुर्थोद्देशक ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३५ शब्दार्थ - तृतीयोदेशकवत् । भावार्थ - इस प्रकार वह अज्ञानी जीव दूसरों के लिए क्रूर कर्म करता हुआ उसके दुख से मढ़ होकर विपरीत प्रवृत्ति का आचरण करता है । विवेचन - इसका पहिले विवेचन किया जा चुका है। मोहान्ध होकर प्राणी दूसरों के लिए स्वयं क्रूर कर्म करता है । वह यह नहीं समझता है कि इन क्रूर कर्मों का फल मुझे ही भोगना पड़ेगा । वे - जिनके लिए मैं करता हूँ - इसके फलोदय के समय भागीदार न होंगे और वे मुझे उस कर्मजन्य दुख से बचाने में और शरण देने में समर्थ नहीं हो सकेंगे। मोह के कारण विवेकरूपी दीपक के बुझ जाने से बेभान होकर वह क्रूर कर्म करता जाता है परन्तु जब ठोकर लगती है तब भी वह सावधान और जागृत नहीं होता है और खेद तथा पश्चात्ताप से जलकर विवेकबुद्धि पर और भी पर्दा डालता है और भान भूलकर विपरीत प्रवृत्ति करता जाता है । अर्थात् सुखों की प्राप्ति के लिए दुखों का जाल बिछाता है । अमर होने के लिए जहर पीता है। थासं च छंदं च विगिंच धीरे । तुमं चेव तं सल्लमाहट्टु । संस्कृतच्छाया - आशाञ्च छन्दश्च वेवि धीर ! त्वमेव तच्छल्यमाहृत्य ( अशुभमादत्से ) 1 शब्दार्थ — प्रसंशा को । छंद च= संकल्पों को । विर्गिच=त्यागो | धीरे—हे धीर पुरुष ! । तुमं चेव=तुम स्वयं। तं सल्लम् = इस कांटे को । आहट्टु अन्तःकरण में रखकर दुखी होते हो । भावार्थ - हे धीर पुरुष ! तुम्हें विषयों की आशा और संकल्पों से दूर रहना चाहिए | तुम स्वयं इस कांटे को अपने अन्तःकरण में स्थान देकर अपने ही हाथों दुखी बन रहे हो । विवेचन - आशा और संकल्पों की दुनियाँ बड़ी लुभाविनी और मोहक है। इस भूलभुलैया में बड़े-बड़े व्यक्ति भटकते रहते हैं और उसका अन्त नहीं पाते । आशा और संकल्पों के जाल में फंसा हुआ प्राणी अपनी वास्तविकता को भूल जाता है । "आज अमुक काम करूँगा, कल अमुक काम करूँगा, इसका ऐसा कर दूँगा उसका वैसा कर दूँगा” इस प्रकार के संकल्प विकल्पों में पड़ा रहता है और अपने वास्तविक कर्त्तव्यों से विमुख बना रहता है । जिस प्रकार एक लहर दूसरी लहर को उत्पन्न करके विलीन होती है इससे लहरों का अन्त नहीं हैं इसी प्रकार आशाओं और संकल्पों का कहीं अन्त नहीं हैं। जिस प्रकार आकाश असीम और अनन्त हैं उसी तरह संकल्प भी असीम और अनन्त हैं। अगर पुण्य योग से कोई श्राशा या संकल्प पूरा हो जाता है तो वह पूर्ति के क्षण में नयी आशा और नये संकल्प को जन्म देता है । यह संकल्प पूर्ण नहीं होने पाता कि सैकड़ों नये संकल्प पैदा हो जाते हैं। इससे जीवन में संकल्पों की अनवस्था बनी रहती है। For Private And Personal प्राणी अपने संकल्पों को पूर्ण करने के लिए प्रयत्न करता है और वह भूल जाता है कि "मुझे मरना पड़ेगा” परन्तु मृत्यु कब उसे भूलने वाली हैं ? इधर प्राणी आशाओं की पूर्ति करने में लगा रहता
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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