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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वितीय अध्ययन चतुर्थोद्देशक ] www.kobatirth.org रोगैरङ्कुरितो विपत्कुसुमितः कद्रुमः साम्प्रतं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सोढा नो यदि सम्यगेष फलितो दुःखैरघोगामिभिः || [ १३३ अर्थात् - रोगादि वेदना प्रकट होने पर उत्तम पुरुष अपनी आत्मा को समझाता है कि हे श्रात्मन्! तु स्वयं मोहरूपी पानी से अशुभ जन्म रूपी क्यारी में, राग-द्वेष कषायादि से शक्ति सम्पन्न, बड़ा बीज बोया है । वह अब रोगरूपी अंकुरों से अङ्कुरित हुआ है, विपत्ति रूपी उसमें फूल खिले हैं । यह कर्मरूपी बड़ा वृक्ष ने तैयार किया है अब यदि तू उसके फूलों को शान्ति के साथ सहन नहीं करेगा तो ये ' फूल (विपत्ति) दुर्गति में ले जायेंगे और दुर्गति के दुखों से यह वृक्ष फल वाला होगा अर्थात् व्याकुल होकर अगर कष्ट सहेगा तो व्याकुलता और भी दुखों का कारण बनेगी। क्योंकि तुझे दुख तो हर हालत में भोगना ही पड़ेगा तो प्रसन्न होकर ही उसे क्यों न भोगा जाय । व्याकुलता दूसरी व्याकुलता की जननी है । कहा है: पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्त्वयाऽयं । न खलु भवति नाशः कर्मणां संचितानाम् ॥ इति सह गणयित्वा यद्यदायाति सम्यग् । सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्त्यः ॥ अगर तू व्याकुल होकर दुखों का फल भोगेगा तुझे पुनः पुनः उनका फल भोगना पड़ेगा । हे प्राणी ! दुख भोगने में तू इतना विकल क्यों होता है ? आखिर अपने संचित किये हुए कर्मों का फल तो तुझे भोगना ही पड़ेगा । भोगे बिना उन कर्मों का नाश नहीं हो सकता है यह विचार कर जो जो दुख वें उन्हें शान्ति के साथ सहन कर ले। इसी में सत् और असत् का विवेक है । इससे बढ़कर और विवेक क्या है ? शान्ति के साथ हर्प और दुख को सहन करना ही बड़ा भारी विवेक है । विवेक भूला हुआ प्राणी भोगों को ही अपना सर्वस्व मानता है । वह परवस्तु में अपनत्व का भान करके दुखी होता है । जब प्राणी स्वपर का विवेक समझ लेता है तो वह कभी इन भोगों में आसक्त नहीं होता है । तीव्र प्रसक्ति का यह भी परिणाम होता है कि वह प्राप्त साधनों का संतोषपूर्वक उपयोग नहीं करता है और मात्र उनका संग्रह करता जाता है । आसक्ति संग्रह की वृत्ति को पोषण देती है । इस प्रकार आसक्त प्राणी अपनी संग्रहित सम्पत्ति में अधिक और अधिक अनुरक्त रहता है जिससे न वह सम्पत्ति का उपभोग ही कर सकता है और न त्याग ही कर सकता है। मात्र उसे एकत्रित करता है । भविष्य में उस एकत्रित सम्पत्ति का क्या हाल होता है सो सूत्रकार बताते हैं: ततो से एगया विप्रसिद्धं संभूयं महोवगरणं भवति तंपि से एगया दायाया विभयन्ति, प्रदत्ताहारे वा से हरति, रायाणो वा से विलुंपंति, एस्सह वा से विस्स वा से, गारदाहेण वा से उज्झति । For Private And Personal संस्कृतच्छाया—ततस्तस्यैकदा विपरिशिष्टं सम्भूतं महोपकरणं भवति तदपि तस्यैकदा दायादा विभजन्ते अदत्तहारो वा तस्य हरति, राजानो वा तस्य विलुम्पन्ति नश्यति वा तस्य विनश्यति वा तस्य, writer वा तस्य दह्यते ।
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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