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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
विवेचन-भोगों के कटुक विपाकों को नहीं जानने वात्ता प्राणी अपने जीवन के अन्तिम पल तक भोगों की ही अभिलाषा करता रहता है, भोगों में ही अपनी वृत्तियाँ रोके रखता है और भोगों को ही अपना सर्वस्व मानता है । यद्यपि अवस्था - परिणाम और जरा परिणाम की वजह से शरीर में शक्ति नहीं रहती, इन्द्रियों की विषय ग्रहण करने की शक्ति क्षीण हो जाती है और सुन्दर शरीर भी जर्जरित हो जाता 'है तदपि भोगों की लालसाएँ घटने के स्थान पर उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं । भोग भोगने की तीव्र अभिलाषा रहती है किन्तु शरीर की लाचारी से उनका उपभोग नहीं हो सकने के कारण वह सदा संतप्त रहता है। वह न भोगों को ही भोग सकता है और न त्याग ही सकता है। वह दया का पात्र व्यक्ति संताप केल में जलता रहता है । वह अपने शरीर की विवशता का शोक करता है और कहता है कि “मैंने बड़ी-बड़ी कठिनाइयों को झेलकर ये भोग के साधन जुटाए हैं और आज मेरी यह दशा हो गई है कि मैं इनका उपभोग करने योग्य नहीं रहा हूँ । इस लाचार अवस्था में मैं अपने प्रिय भोगों को कैसे भोग सकूँगा ?” इस प्रकार विषयान्ध और भोगासक्त प्राणी अपनी विषय भोगने की विवशता को समझता
भी उसका त्याग नहीं कर सकता है और शोक और पश्चात्ताप के आँसू बहाता हुआ विशेषरूप से भोगों में आसक्त बनता है । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का दृष्टान्त इसी बात को पुष्ट करता है ।
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भोगों में अत्यन्त आसक्त बना हुआ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती, मारणान्तिक रोग - वेदना से पीड़ित होता हुआ, अत्यधिक संताप के कारण मूर्छा का अवलम्बन लेता हुआ, व्याकुलता से विव्हल होता हुआ, विषम दुःख से दुखी बना हुआ, ग्लानि से ग्रसित हुआ दुखरूपी तलवार से आहत हुआ, मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ, अन्तिम श्वासोच्छवास लेता हुआ, कर्मविपाक से दुर्दशा को प्राप्त करता हुआ, परलोक के लिए महाप्रयाण करता हुआ, वचन में गद्गद होता हुआ, शरीर में विव्हल बना हुआ, दारुण प्रताप करता हुआ, आँसू-धारा बरसाता हुआ, (ऐसी विषम अवस्था का अनुभव करते हुए भी) महामोह के उदय से अपने पास में बैठी हुई, पति के दुखों की वेदना से अश्रु बहाती हुई अपनी स्त्री कुरूपती को सम्बोधन करता हुआ प्रलाप करता है - हे कुरूमति ! हे कुरूमति !! इस प्रकार आसक्त नयनों से देखता हुआ वारम्बार पुकारता हुआ उसके देखते ही देखते सातवीं नरक के लिए वह प्रयाण कर गया। वह सातवीं नारकी की तीव्र वेदनाओं की भी अवगणना करके और असह्य वेदनाओं का भान भूलकर भी कहाँ कुरूमति ! कुरूमति ! पुकारता है । इस प्रकार भोगों में की हुई अत्यन्त आसक्ति किन्हीं २ प्राणियों के लिए इतर भव में भी दुस्त्याज्य वनती है । हाय मोह की विडम्बना ! हन्त उसका दारूण विपाक !
ऊपर बताई हुई तीव्र कामाभिसक्ति सभी प्राणियों को नहीं होती है परन्तु कितनेक प्राणियों को होती है। इसके विपरीत सनत्कुमार चक्रवर्ती के समान अनेक ऐसे महापुरुष भी हैं जो अपने शरीर को बाह्य और वस्तु समर वेदनादि के उपस्थित होने पर भी उसे शान्तचित्त से सहन करते हैं और मन में किसी प्रकार से भी ग्लानि को स्थान नहीं देते हैं। उनका यह दृढ़ विश्वास होता है कि "अपने किये हुए कर्मों का फल हँसते-हँसते चाहे रोते-रोते प्रत्येक अवस्था में भोगना ही पड़ता है तो फिर रोते २ क्यों सहन करना चाहिए क्यों न हंसते-हंसते ही उसे भोगा जाय ? अपने बोये हुए बीज का परिणाम भोगने के लिए सदा क्यों न सहर्ष तत्पर रहा जाय ? कहा है
उप्तो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्मालवालोऽशुभो, राग-द्वेष- कषायसन्ततिमहानिर्विघ्नबी जस्त्वया ।
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