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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन चतुर्थोदेशक ] [ १३१ भोगों के कारण जब रोग उत्पन्न हो जाते हैं तो रोगी की क्या दशा होती है सोसूत्रकार दर्शाते हैं: जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते एव णं एगया नियया पुब्बिं परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवइजा; नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसि नालं ताणाए वा सरणाए वा, जाणित्त दुक्खं पत्तेयं सायं । संस्कृतच्छाया—यैर्वा सार्द्ध संवसति त एवैकदा निजकाः पूर्व परिवदान्ति, स वा तानिजकान् पश्चात्परिवदेत्, नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा ज्ञात्वा दुःख प्रत्येकं सातम् । शब्दार्थ-प्रथम उद्देशकवत् । भावार्थ—ऐसा रोगी जिन स्नेहियों के साथ रहता है-वे स्नेही--सतत रोग के कारण स्नेह-तरु के सूख जाने से उस रोगी की अवगणना और निंदा करते हैं अथवा वह रोगी सेवा शुश्रूषा के अभाव में उन स्नेहियों की अवगणना करता है । ( कदाचित् स्नेहीजन स्नेहाधीन रहें तो भी ) वे स्नेही उसकी रक्षा करने और उसे शरण देने में समर्थ नहीं हो सकते हैं और वह भी उनकी रक्षा करने और शरण देने में समर्थ नहीं हो सकता है क्योंकि प्रत्येक प्राणी को स्वकृत शुभाशुभ कर्मानुसार अच्छे या बुरे फल ( सुख और दुःख ) स्वयं भोगने पड़ते हैं । तदपि अज्ञानी जीव अन्तिम समय तक भोगासक्त रहते हैं यह वर्णन करते हैं: भोगामेव अणुसोगंति इह मेगेसि माणवाणं तिविहेण, जावि से तत्थ मत्ता भवइ, अप्पा वा बहुगा वा से तत्थ गढिए चिट्ठइ भोयणाए। संस्कृतच्छाया-भोगानेवानुशोचयन्ति, इहैकेषां मानवानाम्, त्रिविधेन यापि तस्य तत्र मात्रा भवति अल्पा वा बढी वा स तत्र गृद्धः तिष्ठति भोजनाय । शब्दार्थ-भोगामेव=भोगों की ही । अणुसोयंति-अभिलाषा करते हैं । इह-संसार में। एगेसिं माणवाणं कितने ही मनुष्यों को यह विचार होता है । तिविहेण तीन करण तीन योग से । जावि से तत्थ मत्ता भवइ-जो भी धन एकत्रित हो जाता है । अप्पा वा बहुगा वा चाहे अल्प या अधिक । से तत्थ गढ़िए चिट्ठइ मोयणाए उपयोग के लिए वह उसमें आसक्त रहता है। भावार्थ-इस संसार में कितने ही प्राणी ऐसे हैं जो (अन्तिम समय तक) कामभोगों की अमिलाषा रखते हैं । उनको थोड़ी या ज्यादा जो भी धन या भोग की प्राप्ति हुई है उसका उपभोग करने के लिए वे उसमें मन, वाणी और काया से अत्यन्त आसक्त हो जाते हैं। ... For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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