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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लोक - विजय नाम द्वितीय अध्ययन —चतुर्थोद्देशक— --20TO%E Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तृतीयोद्देशक में भोगों से विरति करने का उपदेश दिया गया है। प्रस्तुत उद्देशक में भोगों से होने वाली हानियाँ बतलाते हैं । ये भोग दुखों के कारण हैं । कामभोगों से आसक्ति, आसक्ति से कर्मबन्धन, कर्मबन्धन से आध्यात्मिक मृत्यु, आध्यात्मिक मृत्यु से दुर्गति और दुर्गति से दुःख; इस प्रकार ये भोग दुखों के मूल हैं। भोगों के दुष्परिणामों को प्रकट करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं: त से एगया रोगसमुपाया समुप्पज्जति । संस्कृतच्छाया - ततस्तस्यैकदा रोगसमुत्पादाः समुत्पद्यन्ते । शब्दार्थ — तो = कामभोग से । से=भोगी के । एगया=असातावेदनीय के उदय से । रोगसमुप्पाया = रोगों का प्रादुर्भाव । समुप्पजंति होता है । भावार्थ - हे आयुष्मन् जम्बू ! कामभोगों की आसक्ति से रोग उत्पन्न होते हैं । विवेचन - कामभोगों के प्रति गाढ आसक्ति होने के कारण चित्त में हमेशा संताप रहता है । चित्तसंताप के निमित्त से ग्लानि पैदा होती है और उससे विवेकबुद्धि पर आवरण पड़ जाता है जिसकी वजह से प्राणी नीति और नीति, हित तथा अहित का भान गँवा देता है और विषय के साधनों को जुटाने के लिए तनतोड़ परिश्रम करता है । चित्तग्लानि और मानसिक संताप का असर शरीर पर अवश्यमेव पड़ता है फलतः शरीर में विविध रोगों की उत्पत्ति होती है । इसीलिए कहा गया है कि "भोगे रोग भयं" । भोगों से रोगों की उत्पत्ति होने की सदा सम्भावना रहती है । प्राय: करके सभी बीमारियों का मूल कारण (असातावेदनीय के अतिरिक्त) आहार-विहारादि की विषमता ही है। शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श रूप भोगों में आसक्ति के कारण रोगों की उत्पत्ति होती है । श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में आसक्त होकर मनोज्ञ गीतों को सुनने के लिए प्राणी रात भर जागा करते हैं जिससे रोगोत्पत्ति होती है। इसी तरह स्वादेन्द्रिय के वश में पड़ा हुआ प्राणी अनेक प्रकार की अपथ्यकारी वस्तुओं का सेवन अतिमात्रा में करता है जो मुख्य रोगों का घर है। स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में पड़ा हुआ तथा रूप की ज्वाला में भस्म प्राणी वीर्यक्षय करता है और रोगों को निमंत्रण देता है । कहने का तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों के विषय ( कामभोग ) रोगोत्पत्ति के कारण होते हैं । अर्थात भोगी रोगी बनते हैं । भोगी इस भव में भी रोगी देखे जाते हैं और पर भव में भी रोगी बनने की परम्परा प्राप्त करते हैं। वह इस प्रकार है-भोगों से कर्मबन्धन, कर्मबन्धन से मरण, मरण से नरक, नरक से गर्भादि में उत्पन्न होते हैं और गर्भादि से रोग होते हैं । इस तरह भव- परम्परा में भी अंग रोग के कारण बन जाते हैं । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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