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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन वृती बोद्देशक ] [ १२७ मुणिष्णा हु एयं पवेइयं । श्रणोहंतरा एए, एय श्रहं तरित्तए, अतीरंगमा एते, य तीरं गमित्तए । अपारंगमा एए, एय पारं गमित्तए । संस्कृतच्छाया - मुनिना खलु एतत् प्रवेदितम् । अनोघन्तरा एते न च ध तरितुं (समथाः) तीरंगमा एते न च तीरं गमनाय, अपारङ्गमा एते न च पारं गमनाय । शब्दार्थ — मुखिया तीर्थंकर देव ने । हु-निश्चय से । एवं पवेइयं = यह प्ररूपित किया - है । अणोहंतरा एते ये स्वच्छन्दी असंयमी संसार के प्रवाह को पार नहीं कर सकते हैं। ण य श्रहं तरित्त = संसार के प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं होते हैं । अतीरंगमा एए = ये तीर पर नहीं पहुँचते हैं। ण य तीरं गमित्तए और न तीर पर पहुँचने में समर्थ हैं । अपारंगमा एए ये पार नहीं पाते हैं । ग य पारं गमित्त = और न पार पाने में समर्थ होते हैं । I 1 भावार्थ — सर्वज्ञानी तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी ने अपने अनुभव से यह फरमाया है । (तथापि कई स्वच्छंदाचा और संयमी जीव इसे स्वीकार नहीं करते हैं ) ये असंयमी और स्वच्छंदाचा संसार प्रवाह को नहीं तैरते हैं और नहीं तैर सकते हैं, तथा विषयवृत्ति और लालसा से संसार - समुद्र में गोते खाते हैं परन्तु पार और तीर पर नहीं पहुँचते हैं और न पहुँच सकते हैं । विवेचन - श्री सुधर्मा स्वामी जम्वू स्वामी से कहते हैं कि ऊपर जो मान त्याग और भोग निवृत्ति के लिये कहा गया है वह मैंने अपनी बुद्धि से नहीं कहा है परन्तु तीन लोक की त्रिकाल अवस्था को हस्तामलकवत् स्पष्ट जानने वाले सर्वज्ञ तीर्थङ्कर देव श्री महावीर स्वामी ने यह प्ररूपित किया है। उनसे मैंने साक्षात् श्रवण किया है सो तुम्हें कहा है। ऐसा कहकर श्री सुधर्मा स्वामी अपना विनय गुण प्रकट करते हुए स्वमनीषिका का परिहार करते हैं। उन सर्वज्ञानी और सर्वदर्शी प्रभु ने यह भी फरमाया है कि जो स्वच्छंदाचारी और असंयमी हैं वे संसार के प्रवाह को नहीं तैरते हैं और न तैर सकते हैं। चं कि उन द्रव्य नदी प्रवाह को तैरने के लिए भी यान या नाव वगैरह साधनों की आवश्यकता होती है। इने उचित साधनों के बिना पार नहीं जाया जा सकता है। तब भाव रूप संसार समुद्र को तैरने के लिए ज्ञान दर्शन और चारित्र रूपी जहाज की आवश्यकता हो तो क्या बड़ी बात है ? वे असंयमी इन साधनों से विकल हैं अतः वे पार नहीं पा सकते और संसार रूपी समुद्र का किनारा नहीं प्राप्त कर सकते । इसका कारण 'यह है कि वे विषय-वासना और इन्द्रिय सुखों के लालची होते हैं अतः संसार - सागर में गोते खाते रहते हैं । वे अपनी वृत्तियों को पोषण देने के लिए अपनी २ बुद्धि द्वारा शास्त्र और सिद्धान्त बना लेते हैं और स्वयं भी डूबते हैं और अन्य को भी डूबाते हैं। जो व्यक्ति संसार समुद्र को तैरना तो चाहते हैं परन्तु ज्ञान, दर्शन और चारित्र का यथायोग्य श्राराधन नहीं करते हैं वे दोनों किनारों से दूर रहते हैं और मध्य में गोते खाते रहते हैं । वे न इस पार के होते हैं और न उस पार के । श्रतः संसार समुद्र का पार पाने की भावना वाले मुमुक्षुत्रों को यह चाहिए कि ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी पोत (जहाज) का शरण लें। सर्वज्ञोपदिष्ट वचनों में पूर्ण श्रद्धा रखते हुए उनका यथायोग्य पालन करने से मुक्ति अवश्यंभाषी है । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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