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१२८ ]
[प्राचाराग-सूत्रम् शंका-सूत्रकार ने सूत्र में तीर और पार दो शब्दों का प्रयोग किया है तो इनमें क्या भेद है ?
उत्तर-यहाँ तीर शब्द से मोहनीय कर्म का क्षय और पार शब्द से शेष तीन घातिकमों का अर्थ लेना चाहिए । अथवा तीर शब्द से चारों घनघाति कर्मों का क्षय ग्रहण करना और पार शब्द से अघाति कर्मों का भी नाश समझना चाहिए।
असंयमी और स्वच्छन्दाचारी क्यों संसार समुद्र का पार नहीं पाते हैं सो बताते हैं:
श्रायाणिजं च श्रायाय, तमि ठाणे ण चिट्ठइ, वितथं पप्पऽखेयन्ने तमि ठाणम्मि चिट्ठइ।
संस्कृतच्छाया-आदानीयञ्चादाय तस्मिन्स्थाने न तिष्ठति, वितथं प्राप्याखेदज्ञः तस्मिन्स्थाने तिष्ठति ।
शब्दार्थ-अायाणिज्ज संयम को, पायाय ग्रहण करके । तंमि ठाणे-उसके स्थान में । ण चिट्ठइ-नहीं रहता है। वितथं विपरीत उपदेश को। पप्प प्राप्त करके। अखेयने अज्ञानी जीव । तंमि ठाणम्मि-असंयम में । चिट्ठइ-रहता है ।
... भावार्थ-कितने ही अज्ञानी जीव संयम ग्रहण करके भी संयम के स्थान में स्थिर नहीं रहते हैं और मिथ्या उपदेश प्राप्त करके असंयम में ही रक्त रहते हैं।
विवेचन-जो संयम ग्रहण करके भी, संयम में स्थिर नहीं रह सकते हैं ऐसे प्राणी संसार समुद्र से पार नहीं हो सकते हैं। क्योंकि वे वेश तो संयमी का रखते हैं और संयम में स्थिर नहीं होते हैं अतः वे दम्भ और कपट का सेवन करते हैं । जहाँ दम्भ और कपट शेष है वहाँ संसार समुद्र से पार पाने की अभिलाषा का क्या अर्थ-(प्रयोजन) है ? जहाँ स्वच्छंदता है वहाँ असंयम है और जहाँ असंयम है वहाँ संसारपरम्परा विद्यमान है । अज्ञानी प्राणी साक्षात् सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट सम्यक् श्रुत और उसमें प्रतिपादित संयम की अवहेलना करते हैं और मनमाने अनाप्त पुरुषों के रचित शास्त्रों का मिथ्या उपदेश प्राप्त कर असंयम में लीन रहते हैं । अनादिकाल के कर्मपंक से कलंकित यह जीवात्मा असंयम को अधिक पसन्द करता है
और संयम में कठिनता का अनुभव करता है किन्तु यह सब उन कर्मों के विष का फल है जिससे विपरीत ही भान होता है।
यह सर्व का सर्व उपदेश किसके लिए है सो फरमाते हैं:
उद्देसो पासगस्स नत्थि, वाले पुण निहे कामसमणुन्ने, असमितदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव श्रावट्ट अणुपरियट्टइ ति बेमि ।।
संस्कृतच्छाया-उपदेशः पश्यकस्य नास्ति । बालः पुनः निहः कामसमनोज्ञः, अशमितदुःखः दुःखानामेषावर्त्तमनुपरिवर्त्तते इति ब्रवीमि ।
शब्दार्थ-उद्देशो-उपदेश । पासगस्स-तत्त्व जानने वाले के लिए । नत्थि नहीं है।
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