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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १२६ ] [आचाराग-सूत्रम् भावार्थ--इस प्रकार अर्थलोभी वह अज्ञानी जीव दूसरों के लिए कर कर्म करता हुआ उसके. फलोदय से दुःख पाता हुआ और मूढ़ बना हुआ विपर्यास प्राप्त करता है । ( एकत्रित धन के चले जाने के कारण जागृत होने के स्थान पर विशेष मूढ़ता प्राप्त करता है अर्थात् सुख की आशा से काम करता है परन्तु नतीजा दुःख रूप होता है । ) विवेचन-इस सूत्र में आसक्ति के कारण अधर्म और परिताप ही होता है और परिताप से विवेक भूला हुश्रा प्राणी विपरीत प्रवृत्ति करता है यह बताया गया है। जिस प्रकार कुत्ता मांस-रहित हड़ी को चूसता है और चबाता है इसके कारण उसके जबड़ों से खून निकलता है । वह खून उसे स्वादिष्ठ मालूम होता है और वह समझता है कि यह हड्डी बड़ी स्वादिष्ट है परन्तु उस मुर्ख कुत्ते को यह भान नहीं होता कि उस परवस्तु में (हड्डी में) स्वाद नहीं है परन्तु यह तो मेरा स्वयं का खून है जो स्वादिष्ठ लगता है । अपनी ही वस्तु सुखरूप होते हुए भी प्राणी उसको भूलकर परवस्तु में आनन्द का मिथ्या आरोप करते हैं। यही प्राणी का विपरीत अध्यवसाय है और विपरीत प्रवृत्ति है । आत्मतत्त्व और उसके गुण ये आत्मा की स्वतः की पूँजी है और यही आध्यात्मिक तत्त्व सच्चे सुख का देने वाला है परन्तु उसकी ओर लक्ष्य नहीं देकर पर वस्तुओं में, पौद्गलिक कारणों में और बाह्य संसर्ग में यह प्राणी सुख का मिथ्या आरोप करता है और उन्हें प्राप्त करने के लिए समस्त शक्ति व्यय कर देता है। परन्तु जो वस्तु जहाँ नहीं है वहाँ ढूँढने से कैसे प्राप्त हो सकती है ? प्राणी पौद्गलिक पदार्थों से सुख पाने के लिए व्यर्थ फांफा मारता है । यह कदापि सम्भव नहीं है । जैसे भयंकर विषधर सर्प के मुख से अमृत झरने की आशा वृथा है उसी तरह बाह्य वस्तुओं से सुख पाने की तमन्ना निरर्थक है। नश्वर पदार्थ अपने स्वभावानुसार नष्ट होते हैं परन्तु यह आसक्त प्राणी उन पदार्थों को नष्ट होते देखकर रोता है, विलाप करता है और संताप प्राप्त करता है । कैसा अनोखा आश्चर्य है ? नश्वर पदार्थों को नष्ट होते देखकर आगे या पीछे उस मोहान्ध प्राणी को यह ज्ञात हो जाता है कि न इन पदार्थों की प्राप्ति में सुख है और न इनके भोग में ही । तदपि आश्चर्य है कि प्राणी की आसक्ति छूटती नहीं है । वह इन नश्वर चीजों को नष्ट होते देखकर सावधान नहीं होता है किन्तु रोता है और विशेष मूढ़ता पाता है यही तो विपर्यय है । चेतने का अवसर प्राप्त होता है तदपि प्राणी उस अवस्था में दिग्मूढ बन जाता है, कर्तव्य और अकर्त्तव्य, हित और अहित, धर्म और अधर्म तथा ज्ञान और अज्ञान का विवेक नहीं कर सकता है और हित को अहित तथा अहित को हित समझता है । शास्त्रकारों ने मूढ़ का लक्षण इस प्रकार बताया है: रागद्वेषाभिभूतत्वात्कार्याकार्यपराङ्मुखः । एष मूढ इति ज्ञेयो विपरीतविधायकः ॥ जो राग और द्वेष से युक्त होकर, कार्य और अकार्य के विवेक से विमुख है और विपरीत प्रवृत्ति करता है उसे मूढ़ समझना चाहिये । ऐसे मूढ़ प्राणी सुख के अभिलाषी होते हुए भी अपनी मूढ़ता के अन्धकार से दुःखों को प्राप्त करते हैं । अतएव सुखाभिलाषी प्राणियों को पौद्गलिक पदार्थों से आसक्ति मिटाकर आत्म-भाव में रमण करना चाहिए। यही मोक्ष और सुख की कुंजी है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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