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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ११८ ] [आचाराग-सूत्रम् - - उवहए अपयश से कंलकित होकर । जाइमरणं जन्म-मरण के चक्र में । अणुपरियट्टमाणे परिभ्रमण करता रहता है। भावार्थ-कर्मरचना के स्वरूप को नहीं समझने वाला अमिमानी प्राणी अनेक प्रकार की शारीरिक मानसिक व्याधियों से पीड़ित होकर और अपकीर्ति प्राप्त करके जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण करता रहता है। विवेचन-वह उच्चगोत्रादि का अभिमानी, अन्धत्व बधिरत्वादि अशुभ फमों के कलों को भोगता हुआ भी कर्मरचना के स्परूप को नहीं जानता है और हतोपहत होता है । अनेक प्रकार की शारीरिक मानसिक व्यथाओं से पीड़ित होने से हत होता है और सभी जनों की निन्दा का पात्र बनने से व अपयश से कलंकित होने से उपहत होता है। अथवा उच्चगोत्रादि के अभिमान के कारण कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का भान भूल जाने से विद्वानों द्वारा उसके अपयश का पटह (ढोल) पीटा जाता है अतः वह हत है और अभिमान के द्वारा अशुभ कर्मों का बन्धन कर अनेकों भवों में नीचगोत्र के उदय का अनुभव करता हुआ उपहत होता है और उस दुःख से मृढ़ बनता है। फल यह होता है कि जन्म और मरण रूपी दुःखों को अरहट्ट-घटीयन्त्र के न्याय से सहन करता है। जिस प्रकार अरहट्ट (रेट) में रहे हुए घड़े खाली होते हैं और भरते हैं-यही क्रम उनका चालू रहता है-उसी प्रकार ऐसे प्राणी जन्म लेते हैं और मरते हैं । उनके जीवन मरण की परम्परा चालू रहती है। "प्रावीची मरण” न्याय से क्षण क्षण में प्राणी मरण का और नवीन जन्म का अनुभव करता है और दुःख सागर में डूबता है तदपि अनित्य और क्षण विध्वंसी तथा नश्वर पदार्थों को नित्य समझता है और अहित में हित बुद्धि करता है और हित को अहित समझता है । कितना विपर्यय ! कितनी मूढ़ता !! कितना अज्ञान ! ! ! जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं खित्तवत्थुममायमाणाणं । संस्कृतच्छाया-जीवितम् पृथक् प्रियमिहकेषां मानवानाम् क्षेत्रवास्तुममायमानानाम् । शब्दार्थ---खित्तवत्थुममायमाणाणं खेत और मकान आदि में ममत्व रखने वाले । एगेसिं माणवाणं किन्हीं मनुष्यों को । इह-इस संसार में । जीवियं-असंयमित जीवन । पुढो= पृथक् २ प्रत्येक को। पियं-प्रिय है । भावार्थ-क्षेत्र तथा वस्तुओं में ममत्व रखने वाले प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन बड़ा ही प्रिय मालूम होता है ( तथापि प्राणी को मरना पड़ता है)। विवेचन-इस संसार में अविद्यारूपी अन्धकार से घिरे हुए चित्त वाले मनुष्यों को यह असंयमित जीवन बड़ा ही प्रिय मालूम होता है। वे सदा जीवित रहना चाहते हैं । इसी अभिलाषा से वे जीवन को चिरकाल तक टिकाये रखने के लिए विविध प्रकार के रसायनों का सेवन करते हैं तथा अन्य प्राणियों का खून अपने शरीर में डलवाते हैं । इस प्रकार नश्वर शरीर को अमर बनाये रखने की मिथ्याभिलाषा से अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते हैं । ये मेरे धान्यादिक के खेत हैं, ये ऊंची ऊंची अट्टालिकाएँ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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